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चतुर्थ खण्ड : ३६१ म्बरोंका पक्षधर है । उसके पास तक श्वेताम्बर आचार्योंकी पहुँच है साथ ही उसका महामात्य भी श्वेताम्बर आम्नाय को माननेवाला ही है । ऐसी अवस्थामें उस नगरमें जाकर बादमें विजय पाना कैसे सम्भव है । इसलिए एक तो निष्कर्ष निकलता है कि यह वाद हुआ ही नहीं । दूसरे हुआ भी है तो दिगम्बर आचार्यको छला गया है । वास्तवमें देखा जाय तो कार्य ही ऐसे थे जिनके कारण जैनधर्म न केवल कलंकित हुआ, देवसूरि अपितु उसका पतन भी हुआ। जिसे इसके कारनामोंको जानना हो उसे कनैयालाल मुनशी द्वारा लिखित 'गुजरातनो नाथ' पुस्तक पढ़नी चाहिये । इसी प्रकार इन्हींके द्वारा लिखी गई 'पाटतनी प्रभुना' पुस्तक भी पढ़नी चाहिये । इनके पढ़नेसे ही ज्ञान हो जायगा कि देवसूरिका जीवन कैसा था और उनके गुरु आनन्दसूरि अपनी मोक्ष मार्ग की भूमिकाको छोड़कर राजकारणमें पड़कर कैसे अमानुषिक कार्य करनेमें लगे हुए थे । एक स्थलपर दूसरेसे बातचीत करते हुए वे (आनन्दसूरि) कहते हैं - 'मारे हाथे जिन भगवानना शत्रुओं ठेकाने थवानाछे' दूसरी जगह वे कहते हैं - 'अमारा श्रावकोए पाठनथी कंटालो चन्द्रावती स्थाप्यु अनेअहींया पण तेमनु चाले तो राजाने उठाडी महाजनानुं राज्यस्याप्यु ।" आदि । ये है आनन्दसूरि के विचार | देवसूरि इनसे भी गये बीते थे । उसमें उदा - सेठका इन्हें बल मिला हुआ था । वह भी इस विचारका था । इससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि यह वाद एक नाटक है । जैसे वंसीमें अन्नके लोभसे मछली फसती रहती है वैसे ही बादमें न्यायके लोभसे कुमुदचन्द्रको देवसूरिने फँसाया । उद्देश्य इतना ही था कि किसी प्रकार पाटन और उसके आस-पासके प्रदेशसे दिगम्बरोंका निष्कासन किया जाय । जिनको परिस्थितिवश वहाँ रहना पड़े उनका श्वेताम्बरीकरण किया जाय ।
यह तो इतिहासकी साक्षीसे स्पष्ट ही है कि शाखाबन्ध परवार (पौरपाट) तो बहुत कुछ वहाँसे निकल आये थे और धीरे-धीरे वहाँसे निकल कर चन्देरी और उसके आस-पास के ग्रामोंमें बसते रहे हैं । उनके वहाँ से आका यह क्रम १६वीं शताब्दी तक चलता रहा है । इस प्रकार चन्देरीको केन्द्र बनाकर बुन्देलखण्ड में बस गये थे । उनमें जो गांगड़ परवार और सोरठिया परवार बच गए थे उन सभीका ऐसा लगता है कि धीरे-धीरे श्वेताम्बरीकरण हो गया होगा । इनमेंसे बहुतसे भाई अजैन बन गये हों तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि प्रतिमालेखों और ग्रन्थ प्रशस्तियोंके देखनेसे यही निश्चय होता है कि उक्त दोनों प्रकारके परवार श्वेतांबरोंके इस मायाजालसे कभी भी नहीं निकल सके और उनका श्वेतांबरीकरण होकर रह गये । चंदेरी - सिरोंज ( परवार) पट्ट ७
मूलसंघ नन्दि-आम्नायकी परम्परामें भट्टारक पद्मनन्दीका जितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, उनके पट्टधर भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिका उससे कम महत्वपूर्ण स्थान नहीं है । इनका अधिकतर समय गुजरातकी अपेक्षा बुन्देल - खण्डमें और उससे लगे हुए मध्यप्रदेशमें व्यतीत हुआ है। चंदेरी पट्टको स्थापनाका श्रेय इन्हींको प्राप्त है । श्री मूलचन्द किशनदासजी कापडिया द्वारा प्रकाशित 'सूरत और सूरत जिला दिगम्बर जैन मन्दिर लेख संग्रह ' संक्षिप्त नाम 'मूर्ति लेख संग्रह' के पृष्ठ ३५ के एक उल्लेखमें कहा गया है कि 'गंधारकी गद्दी टूट जानेसे सं० १४६१ में भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिने इस गद्दीको रांदेरमें स्थापित किया । जिसे सं० १५९८ में भट्टारक विद्यानंदीजीने सूरनमें स्थापित किया । 'किन्तु अभी तक जितने मूर्तिलेख उपलब्ध हुए हैं उनसे इस तथ्य की पुष्टि नहीं होती कि देवेन्द्रकीर्ति १४६१ वि० में या इसके पूर्व भट्टारक बन चुके थे। साथ ही उक्त पुस्तकमें जितने भी मूर्ति लेख प्रकाशित हुए हैं उनमें केवल इनसे सम्बन्ध रखनेवाला कोई स्वतन्त्र मूर्ति लेख भी उपलब्ध १. पाटतनी प्रभुता प० १३, वही पृ० २६
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