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३५४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
गोत्र ५
गोत्र शब्द अनादि है । आठ कर्मों में भी गोत्र नामका एक कर्म है । इसे आगममें जीवविपाकी कहा गया है । और इस परसे यह अर्थं फलित किया गया है कि परम्परासे आये हुए आचारका नाम गोत्र है । उच्च आचारकी उच्चगोत्र संज्ञा है और नीच आचारकी नीचगोत्र संज्ञा है । साथ ही आगममें इसके सम्बन्धमें यह भी लिखा है कि नीचगोत्र एकान्तसे भवप्रत्यय है और उच्चगोत्र परिणामप्रत्यय होता है । इससे यह अर्थं फलित किया गया है कि यदि कोई नीचगोत्री मनुष्य हो और वह उच्च आचारवालोंकी संगति करके अपने जीवनको बदल ले तो वह मुनिधर्मको स्वीकार करते समय उच्चगोत्री हो जाता है । मात्र उच्चगोत्री आचारकी दृष्टिसे कितना भी गिर जाय, फिर भी वह उच्चगोत्री ही बना रहता है ।
गोत्रकर्मका यह सैद्धान्तिक अर्थ है, इसका एक सामाजिक रूप भी है। किसी भी समाजके निर्माण में इसका विशेष ध्यान रखा जाता है । कहते हैं कि जैन समाजके भीतर जितनी भी उपजातियाँ बनी हैं वे सब उन्हीं कुटुम्बों को लेकर बनी हैं जो आचारकी दृष्टिसे लोकप्रसिद्ध रहे हैं। इसका मूल कारण जैन आचार है, क्योंकि कोई भी कुटुम्ब जैनाचारकी दीक्षामें दीक्षित हो और वह हीन आचारवाला हो, यह नहीं हो सकता ।
इस दृष्टिसे हमने पौरपाट अन्वयके भीतर जो गोत्र प्रसिद्ध हैं, उनके विषयमें गहराईसे विचार किया है कि वे सब गोत्र वाले कुटुम्ब मुख्यतया क्षत्रिय अन्वयसे सम्बन्ध रखनेवाले रहे हैं । पौरपाट अन्वयमें जो १२ गोत्र प्रसिद्ध हैं, उनके नाम हैं
(१) गोइल्ल, (२) वाछल, (३) वासल्ल, (४) वाझल्ल, (५) कासिल, (६) कोइल्ल, (७) खोइल्ल, (८) कोछल्ल, (९) भारिल्ल, (१०) माडिल्ल, (११) गोहिल्ल और (१२) फागुल्ल ।
अ देखना यह है कि इन गोत्रोंके पीछे कोई इतिहास है या ब्राह्मणोंमें प्रसिद्ध गोत्रोंको ध्यानमें रखकर ही इस अन्वयमें गोत्रोंके ये नाम कल्पित कर लिये गये हैं । प्रश्न मार्मिक है । आगे इसी पर विचार किया जाता है ।
यह तो सुप्रसिद्ध बात है कि ब्राह्मण सदासे जैनधर्मके विरुद्ध रहे हैं । क्योंकि ब्राह्मण धर्ममें जहाँ परावलम्बनके प्रतीक स्वरूप ईश्वरवादकी प्राणप्रतिष्ठाकी गई है वहाँ जैनधर्म स्वावलम्बनप्रधान धर्म होनेसे उस में सदा से ही व्यक्ति स्वातंत्र्यकी प्राणप्रतिष्ठा हुई है । ऐसी अवस्थामें जैनधर्म में दीक्षित होनेवाले कुटुम्ब ब्राह्मणोंके गोत्रोंका अनुसरण करेंगे, यह कभी भी सम्भव नहीं दिखाई देता । इसलिये यह तो निश्चित है कि इन गोत्रोंके नामकरणमें इस अन्वयने ब्राह्मणोंका भूलकर भी अनुकरण नहीं किया है । इस परसे यह सहज ही समझ में आ जाता है कि इस अन्वयके इन गोत्रोंके नामकरणमें क्षत्रियोंमें प्रचलित गोत्रोंको अपनाया गया है। इस परसे यदि यह निष्कर्ष फलित किया जाय कि जिन क्षत्रिय कुलांने जैनधर्मको अंगीकार किया उनके जो गोत्र रहे हैं, वे ही गोत्र इस अन्वयमें रूढ़ हो गये हैं, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।
उदाहरणार्थ जिन गुहिलवंशीय क्षत्रिय कुलोंने जैनधर्म अंगीकार किया उन्हें ही गोहिल्ल गोत्रीय पौरपाट कहा गया है । यह एक उदाहरण है । इसी प्रकार इस अन्वयमें प्रसिद्ध अन्य गोत्रोंके विषय में भी जानना चाहिये ।
प्राग्वाट इतिहास के अध्ययनसे पता लगता है कि प्राग्वाट अन्वयमें राठोड़, परमार, चौहान आदि अनेक वंशके क्षत्रिय जिनधर्मको स्वीकार कर दीक्षित हुए थे I सोलंकी क्षत्रियोंसे तो इस अन्वयका निकटका सम्बन्ध रहा ही । इसलिये ऐसा लगता है उनमें जो गोत्र प्रसिद्ध रहे हैं, कुछ शब्द भेदसे वे ही गोत्र पौरपाट
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