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चतुर्थ खण्ड : ३५१
कि परवार भाई-बहन मेलेके समय निमन्त्रण मिलनेपर भी पक्के खान-पानमें सम्मिलित नहीं होते थे। किसी प्रकार पुनः निमन्त्रण दिलवाकर हम उन्हें पंक्ति-भोजनमें ले गये, क्योंकि हम यह अच्छी तरह जानते थे कि जब तक दोनों ओरके भाई-बहन एक साथ उठेंगे-बैठेंगे नहीं, एक साथ पंक्ति-भोजनमें सम्मिलित होंगे नहीं, तबतक इन सबको मिलाकर एक करना सम्भव नहीं है । यद्यपि उस समय हमने अपनी युक्तिसे पंक्तिभोजनमें सबको अवश्य मिला दिया था पर ऐसे प्रयत्नोंसे जो इष्ट फलकी प्राप्ति होनी चाहिये, उससे पूरा समाज अभी भी वंचित है । अब तो सबका मिलकर एक संगठन बन जाय इसकी किसीको चिन्ता भी नहीं है। चिन्ता हो क्यों, समाजका ह्रास कल होना था तो आज हो जाय, उससे हमारा क्या बनता-बिगड़ता है ? आजसे लगभग दो हजार वर्ष पूर्व स्वामी समन्तभद्रने पूरे जनसंघके सामने एक आदर्श रखा था-"न धर्मो धार्मिकैः विना", पर मालूम पड़ता है कि समाजने उसप चलना सीखा ही नहीं।
अब देखना यह है कि इस भेदका मूल कारण क्या है ? ऐसी कौन-सी अड़चन है जो इस समाजको एक करनेमें आडे आती है। आगे उसीपर सांगोपांग विचार किया जाता है
सोलहवीं शताब्दीके प्रारम्भमें श्री जिनतारण तरण प्रमुख सन्त हो गये हैं। इनके माता-पिता चौसखे परवार थे । वे विलहरी (पुष्पावती) नगरके रहनेवाले थे। पिताका नाम गढ़ा साह और माताका नाम वीरश्री था। श्री जिनतारण-तरणका शिक्षण चन्देरीमें भट्टारक देवेन्द्रकीति और उनके शिष्य भ० त्रिभुवनकीतिकी देख-रेखमें हुआ था । लगता है कि भट्टारक श्रुतकीर्ति इनके सहाध्यायी थे। यदि श्रुतकीर्ति आयुमें बड़े रहे हों, वो उनके पास भी उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा ली हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
___इनका पूरा जीवन अध्यात्म रससे ओत-प्रोत रहा है। गुरुओंके सन्निकट उन्होंने उसीकी शिक्षा पाई थी और उसीके लिए वे जीवित रहे और उसीका गान करते हुए उन्होंने इहलीलाको समाप्त किया।
उनकी समग धमल्हारगंज निसईजीमें जिस स्थानपर हुई थी वहाँ स्मारक स्वरूप एक छतरी बनी हई थी। वह अब उसी रूपमें तो नहीं है। कहते हैं कि उसके चारों ओर बारहदरी बना दी गई है । पर जिस रूपमें वह छतरी थी वह उसी रूपमें न रह सकी। इसका जी भी कारण रहा हो। छतरीमें कोई-न-कोई ऐसा चिह्न अवश्य होना चाहिये जो उस पुण्य मूर्ति सन्तका स्मरण करानेमें सहायक माना जाये।
उनके द्वारा प्ररूपित १४-१५ ग्रन्थ माने जाते हैं। उनमें एक "तारणश्रावकाचार" भी है। यह श्रावकाचा की प्ररूपणा करनेवाला महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें परमार्थ स्वरूप देव, गुरु और शास्त्रका सुन्दर विवेचन किया गया है। इसकी गाथा ७५ में जैसे कुगुरुको ही अगुरु कहा गया है वैसे ही ६० और ६१ क्रमांककी गाथाओंमें कुदेव और अदेव इनको एक माना गया है । ६१ क्रमांककी गाथामें इसी बातको स्पष्ट करते हुए अनेक अर्थात् कुदेवको संगतिका निषेध भी किया गया है।
फिर भी कुछ भाई इसका विपरीत अर्थ करके जिनबिम्बकी पूजाका सर्वथा निषेध करते हैं। यदि उनकी इस बातको ठीक मान लिया जाय तो शास्त्रपूजा और चैत्यालयोंमें उनकी स्थापना नहीं बन सकती है। जैसे शास्त्र अक्षरात्मक और शब्दात्मक संकेत द्वारा आत्मा और परमात्माका बोध कराने में सहायक होते हैं, वैसे ही जिनबिम्ब भी उस परमात्माका ज्ञान कराने में समर्थ होते हैं जिनके माध्यमसे यह संसारी प्राणी ज्ञानानन्दस्वरूप अपने आत्माका अनुभव करने में समर्थ होता है।
स्वामीजीने कहीं भी जिनपूजाका निषेध नहीं किया है। जो भव्यजीव समवसरणमें जाते हैं, उन्हें भी आँखोंसे सौम्यमूर्तिस्वरूप आत्माके दर्शन न होकर शरीरके ही दर्शन होते हैं। फिर भी भव्य जीव उसे माध्यम बनाकर कर्मकलंकसे भिन्न ज्ञानानन्दस्वरूप अपने आत्माके दर्शन कर लेते है । आलम्बन क्या है यह मुख्य नहीं ।
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