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चतुर्थखण्ड : १६९ उपयोग करता है, जिनसे दूसरे प्राणियोंको किसी प्रकारकी बाधा नहीं होने पाती । जिनसे दूसरोंकी हानि होने की सम्भावना होती है उनका वह निर्माण भी नहीं करता और ऐसा करके वह स्वयंको अनर्थदण्डसे बचाता है ।
चार शिक्षाव्रत
वह अपने जीवनमें कुछ शिक्षाएँ भी स्वीकार करता है । प्रथम तो वह समता तत्त्वका अभ्यास कर अपने सामायिक शिक्षाव्रतको पुष्ट करता है । दूसरे पर्व दिनोंमें एकाशन और उपवास आदि व्रतोंको स्वीकार कर वह प्रोषधोपवास व्रतकी रक्षा करता है । शरीर सुखशील न बने और आत्मशुद्धिकी ओर गृहस्थका चित्त
जावे, इस अभिप्रायसे वह इस व्रतको स्वीकार करता । वह अपने आहार आदिमें प्रयुक्त होनेवाली सामग्रीका भी विचार करता है और मन तथा इन्द्रियोंको मत्त करनेवाली तथा दूसरे जीवोंको बाधा पहुँचाकर निष्पन्न की गयी सामग्रीका उपयोग न कर उपभोग - परिभोग परिमाणव्रतको स्वीकार करता है। अतिथि सबका आदरणीय होता है और उससे संयमके अनुरूप शिक्षा मिलती है, इसलिए वह अतिथिसंविभागव्रतको स्वीकार कर सबकी यथोचित व्यवस्था करता है । ये गृहस्थके द्वारा करने योग्य बारह व्रत हैं । इनके धारण करनेसे उसका गार्हस्थिक जीवन सफल माना जाता है ।
४. कृतिकर्म - देवपूजा
हमने मुनिधर्म और गृहस्थधर्मका सामान्यरूपसे दिग्दर्शन कराते समय जिस प्रमुख धर्मका बुद्धिपूर्वक उल्लेख नहीं किया है वह है कृतिकर्म । कृतिकर्म साधु और गृहस्थ दोनोंके आवश्यक कार्योंमें मुख्य है । यद्यपि साधु सांसारिक प्रयोजनोंसे मुक्त हो जाता है, फिर भी उसका चित्र भूलकर भी लौकिक समृद्धि, यश और अपनी पूजा आदिकी ओर आकृष्ट न हो और गमनागमन, आहार ग्रहण आदि प्रवृत्ति करते समय लगे हुए दोषों का परिमार्जन होता रहे, इसलिए साधु कृतिकर्मको स्वीकार करता है। गृहस्थकी जीवनचर्या ही ऐसी होती है जिसके कारण उसको प्रवृत्ति निरन्तर सदोष बनी रहती है, इसलिए उसे भी कृतिकर्म करनेका उपदेश दिया गया है ।
पर्यायवाची नाम
मूलाचार में कृतिमकर्मके चार पर्यायवाची नाम दिये हैं- कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म ।' इनकी व्याख्या करते हुए वहाँ कहा गया है कि जिस अक्षरोच्चाररूप वाचनिक क्रियाके, परिणामोंकी विशुद्धिरूप मानसिक क्रियाके और नमस्कारादि कायिक क्रियाके करनेसे ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मोंका 'कृत्यते छिद्यते' छेद होता है उसे कृतिकर्म कहते हैं । यह पुण्यसंचयका कारण है, इसलिए इसे चितिकर्म भी कहते हैं । इसमें चौबीस तीर्थंकरों और पाँच परमेष्ठी आदिकी पूजा की जाती हैं, इसलिए इसे पूजाकर्म भी कहते हैं तथा इसके द्वारा उत्कृष्ट विनय प्रकाशित होती है, इसलिए इसे विनयकर्म भी कहते हैं । यहाँ विनयat 'विनीयते निराक्रियते' ऐसी व्युत्पत्ति करके इसका फल कर्मों की उदय और उदीरणा आदि करके उनका वहाँ वह नाश करना भी बतलाया गया है । तात्पर्य यह है कि कृतिकर्म जहाँ कर्मों की निर्जराका कारण उत्कृष्ट पुण्य संचयमें हेतु है और विनयगुणका मूल है, इसलिए उसे प्रमादरहित होकर साधुओं और गृहस्थोंको यथाविधि करना चाहिए ।
१. मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ७९ ।
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