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चतुर्थ खण्ड : २४५
है । कारण ऊपर ज्ञानकी विभावरूप अवस्था विशेषको भावान कहा गया है और यहाँपर निमित्तकी मुख्यतासे वर्णन किया जा रहा है। जब कि भावमन यह जीवकी शुद्ध अवस्थामें नहीं पाया जाता है और क्षयोपशमरूप है तो वह नैमित्तिक होना ही चाहिए. इसमें कुछ भी संदेह नहीं हैं। स्वर्ण में किट कालिमाके निमित्तसे उत्पन्न हुई जो विरूपता है वह स्वर्णकी मानी जावे अथवा उस प्रकारका श्रद्धान किया जावे, तो इससे अपनी श्रद्धा मिथ्या कही जावेगी। कारण कि यह निमित्तजन्य अवस्था है; शुद्ध स्वर्णकी निज परणति नहीं है । उसी प्रकार भावमन यह जीवकी अशुद्ध अवस्थामें उत्पन्न हुई कर्मनिमित्तक परणति है। अतएव वह जीवकी नहीं कही जा सकती है। यदि जीवको कहना भी हो, तो विभावरूपसे ही उसे जीवकी कहनी होगी; स्वभावरूपसे नहीं। परन्तु विभाव यह जीवका निजभाव-स्वभाव नहीं है। वह तो परके निमित्तसे उत्पन्न हुआ विकारी भाव है।
अब देखना यह है कि इस विभाव अवस्थामें निमित्त कौन है ?
यह सबको ही विदित है कि संसारी आत्मा कर्मबद्ध है। अतएव अपने-अपने विरोधी कर्मका सद्भाव रहते हुए जितने भी भाव उत्पन्न होते हैं, वे सबके सब विभाव हैं। कारण कि उनमें कर्मके उदयादि कारण पड़ते हैं । अतएव यह सिद्ध हो जाता है कि विभाव अवस्थामें निमित्त कर्म हैं। भावमन भी अपने विरोधी नोइन्द्रियावरण कर्मके सद्भावमें ही उत्पन्न होता है। अतएव वह ज्ञानकी पर्यायविशेष होते हुए भी स्वभाव नहीं है । इसीलिए तो उसे पौद्गलिक कहा जाता है। भगवान् पूज्यपादने जो उसे 'पुद्गलावलंबनात् पुद्गलम्' ऐसा कहा है उसका भी यही कारण समझना चाहिये।
यहाँपर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि सर्वार्थसिद्धिकारको जब वह केवलशानरूप इष्ट था, तो उसी जगह उसे 'पुद्गलावलंबनात् पुद्गलम्' ऐसा कहनेकी क्या आवश्यकता थी। परन्तु थोड़ा सूक्ष्मदृष्टिसे विचार किया जावे, तो यह बात उसी समय समझमें आ जाती है कि पूज्यपाद स्वामीको एक ही जगह उपादान और निमित्त इन दोनों कारणोंका वर्णन करना इष्ट था। अत एव उन्होंने पुद्गलोपकार्य पदार्थोंमें निमित्त की मुख्यतासे भावमनका भी संग्रह कर लिया। यदि भावमन केवलज्ञानरूप ही है। उसमें कर्मका थोड़ा भी सम्बन्ध नहीं है, तो उसे पुद्गलोपकार्य नही कहना चाहिये था । संसारी आत्माको जब कि कथंचित् मूर्ति स्वीकार किया है, तो भावमनको कथंचित् पौद्गलिक मान लेनेमें विशेष आपत्ति नहीं दिखाई देती है ।
संसारी आत्माको कथंचित् मूर्तिक माननेमें प्रमाणबंधं प्रत्येकत्वं लक्षणो भवति तस्य नानात्वम् । तस्मादमूर्तिभावो नैकांताद्भवति जीवस्य ।
-श्लोकवार्तिक कर्म और आत्माके बंधकी अपेक्षासे एकपना है और लक्षणकी अपेक्षासे दोनोंके भिन्नपना है। इसलिये आत्माके अमूर्तिपना एकांतसे नहीं हो सकता है । वह कथंचित् ही मानना चाहिये ।
अब विचार करिये कि यदि कोई कर्मके निमित्तसे होनेवाले गुणधर्मीको सर्वथा आत्माका मानने लगे, तो क्या उसकी यह मान्यता समीचीन कही जा सकेगी? समयसारका प्रयोजन भी तो इसी दुषित दृष्टिको हटानेका है। हाँ, यदि कोई किसी आत्माको अशुद्ध अवस्थामें रहते हुए भी उस समय उसे शुद्ध मानने लगे,
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