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३४४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
पट्टावलीका यह अंश मूल संघ कुन्दकुन्दआम्नाय बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छके अन्तर्गत सूरत पट्टके द्वितीय भट्टारक श्रीविद्यानंदजी महाराजका है। इस पट्टावलीमें उन्हें अष्टशाखा प्राग्वाटवंशका कहा गया है। यह एक ऐसा प्रमाण है जिससे इस तथ्यकी पुष्टि होती है कि जिसे वर्तमानमें परवार जाति कहा जाता है वह पौरवालों आदिके समान प्राग्वाट जातिका ही एक भेद है। अपने दुराग्रहवश कोई इस तथ्यको न स्वीकार करे, यह बात अन्य है।
इस प्रकार इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिसे हम वर्तमानमें परवार जातिके नामसे जानतेसमझते हैं उसका विकास भी पौरवालों आदिके समान उसी जातिसे हुआ है, जिसे कभी 'प्राग्वाट' इस नामसे अभिहित किया जाता रहा है । २. स्थान
अब देखना यह है कि वह स्थान कौन-सा है जिस स्थानको केन्द्र बनाकर पौरवाट या परवार जाति ने मूर्तरूप लिया। इसके साथ दूसरा यह प्रश्न विचारणीय है कि इस जातिके इस नामकरणका मूल कारण क्या हो सकता है ? इन दो मुद्दोंमेंसे सर्व प्रथम हम स्थानका निर्णय करेंगे और उसके बाद ही नामकरणके सम्बन्धमें ऊहापोह करेंगे।
___यह तो हम 'भट्टारक सम्प्रदाय' ग्रन्थके आधारसे ही स्पष्ट कर आये हैं कि 'पौरपाट' जिसे वर्तमानमें 'परवार' अन्वय कहा जाता है उसका निकास 'प्राग्वाट' अन्वयसे ही हुआ है। इसलिये यह विचारणीय हो जाता है कि यह 'प्राग्वाट' किसकी संज्ञा है ? क्या इस नामका कोई प्रदेश रहा है या अन्य किसी कारणसे किसी अन्वय (जाति) विशेषको यह संज्ञा मिली है ?
- गुजरात और गुजरातसे लगे हुए प्रदेशमें प्राग्वाट एक अन्वय रहा है जो क्रमसे अनेक भेदोंमें विभक्त होता गया । इसलिये विचारणीय यह है कि इस नामकरणका मूल कारण क्या हो सकता है ? प्रश्न मौलिक है। आगे इस पर क्रमसे विचार किया जाता है
'प्राग्वाट इतिहास' (प्र० भा०) पृ० १२ में श्रीमालपुर (भिन्नमाल या भीनमाल) में बसनेवाली जातियोंका उल्लेख करते हुए लिखा है कि इस नगरीमें बसनेवाले जो 'धनोत्कटा' थे वे धनोत्कटा श्रावक कहलाये । जो उनमें कम श्रीमन्त थे वे श्रीमाल श्रावक कहलाये और जो पूर्ववाटमें रहते थे वे प्राग्वाट श्रावक कहलाये । इनकी परम्परामें हुई इनकी सन्ताने भी श्रीमाली, धनोत्कटा और प्राग्वाट कहलाये।' वि० सं० १२३६ में श्री नेमिचन्द्र सूरिकृत "महावीर-चरित्र'की प्रशस्तिमें लिखा है
प्राच्यां वाटो जलधिसुतया कारितः क्रीडनाय, तन्नाम्नैव प्रथमपुरुषो निर्मिताऽध्यक्षहेतोः। तत्सन्तानप्रभवपुरुषः श्रीभतो संयुतोऽयम्,
प्राग्वाटरूपो. भुवनविदितस्तेन वंशः समस्ति । पूर्व दिशामें अध्यक्षके निमित्त जो प्रथम पुरुष हुआ उसी नामसे (प्राग्वाट नामसे) एक स्थल बनाया । उसकी उत्तरकालमें जो सन्तान हई, वे लक्ष्मी सम्पन्न थीं और वे प्राग्वाट वंशके नामसे प्रसिद्ध हयों।
इससे ऐसा लगता है कि भिन्नमालके पूर्व दिशामें जो स्थान निर्मित हुआ था उसका नाम प्राग्वाट था। प्राग्वाट जाति या वंशका विकास उसी स्थानसे हुआ है।
(२) श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा लोढ़ाजीको उत्तर देते हुए अपने पत्रमें लिखते हैं 'प्राग्वाट' शब्दकी उत्पत्ति मेवाड़के 'पुर' शब्दसे है । पुर शब्दसे "पुरवाड़" और "पौरवाड़" शब्दोंकी उत्पत्ति हुई है।
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