________________
३४६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्रो अभिनन्दन-प्रन्थ
(२) पहिले हम जैनहितैषीके आधारसे यह लिख आये हैं कि श्री हरिभद्रसूरिने पौरवाड़ वंशकी मेवाड़ देशमें स्थापना की। साथ ही उसमें यह भी लिखा है कि सूरिजीका वि० सं० ५८५ में स्वर्गवास हुआ है।
किन्तु विचार करनेपर विदित होता है कि श्री हरिभद्रसुरिका कार्यकाल श्री भट्टाकलंकदेवके बाद ही आता है और भट्टाकलंकदेवका कार्यकाल विक्रम सम्वत् ८वीं शताब्दी माना गया है । इसलिये ऐसा निश्चित मालूम पड़ता है कि हरिभद्रसूरिने पौरवाड़ोंको दिगम्बर आम्नायसे श्वेताम्बर आम्नायकी दीक्षा दी होगी और उसी तथ्यको श्वेताम्बर लेखकों ने पौरवाड़ोंको जैनधर्मकी दीक्षा दी यह लिखकर प्रकट कर दिया है।
जैसा कि हम पहिले लिख आये है कि प्राग्वाट वंशकी उत्पत्ति लगभग २००० वर्ष पूर्व आचार्य गुप्तिगुप्तके कार्यकालके पूर्व हो गयी थी, अतः विक्रम सं० ५८५ में पौरवाड़ीकी उत्पत्ति हुई, ऐसा मानना इतिहासकी कोरी कल्पनामात्र है।
(३) 'जातिभास्कर' पुस्तकमें उसके लेखकने पृ० २७२ पर पौरवाड़ोंके विषयमें जो कुछ लिखा है वह मात्र अजैन पौरवाड़ोंको ध्यानमें रखकर ही लिखा है। जैन पौरवाड़ोंको ध्यानमें रखकर नहीं लिखाइतना यहाँ विशेष जानना चाहिये ।
इस प्रकार विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिन्हें वर्तमानमें पौरवाड़ और पौरपाट कहा गया है उन्हें ही पहले प्राग्वाट कहते थे और उनका निकास प्राग्वाट प्रदेशसे हआ है। नाम ३
. जैसा कि हम पहले लिख आये हैं, जिसे वर्तमानमें परवार अन्वय (जाति) कहा जाता है. प्रतिमालेखों आदिमें उसका पुराना नाम पौरपाट रहा है; जैसा कि साढोरा ग्रामसे वि० सं० ६१० की प्राप्त जिनप्रतिमाके लेखसे ज्ञात होता है । लेख यह
PART
संवत् ६१० वर्षे माघ सुदि ११ मूलसंधे पौरपाटान्वये पाट (ल) नपुर संधई।
इसके साथ कुछ प्रतिमा लेख ऐसे भी मिलते हैं, जिनमें इस अन्वयका नाम पौरपद्रान्वय भी पाया जाता है; यथा
संवत् १५३२ चंदेरी मंडलाचार्यान्वये भ० श्रीदेवेन्द्रकीर्तिदेवा त्रिभुवनकीर्तिदेवा पौरपट्टान्वये अष्टासखे
यद्यपि विक्रम संवत् १८९के जिस प्रतिमालेखका हम पूर्वमें उल्लेख कर आये हैं, उसमें इस अन्वयको 'आष्टा साख' कहा गया है। परन्तु अष्टसखा यह पौरपाट अन्वयका एक भेद है । इस लये इस आधार पर उसे अष्ट सखा अन्वय स्वतंत्र जाति वाचक नहीं कहा जा सकता।
यहाँ मुख्य रूपसे विचारणीय बात यह है कि इस अन्वयका नाम पौरपाट या पौरपट्ट क्यों प्रसिद्ध हुआ ? जब कि प्राग्वाट वंशके अन्तर्गत अन्य जितनी भी उपजातियाँ बनी है, उन सबमें पौर शब्दके साथ यातो 'वाल'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org