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बन्धका प्रमुख कारण : मिथ्यात्व
तत्त्वार्थसूत्र अ० ८ सू० १ तथा आत्मानुशासन आदि ग्रन्थोंमें बन्धका उल्लेख कर अनेक स्थलोंपर संसारके जिन कारणोंका उल्लेख दृष्टिगोचर होता है उनमें मिथ्यात्व मुख्य है । अदेव में देवबुद्धि, अगुरु में गुरुबुद्धि और अतत्त्व या उनके प्रतिपादक कुशास्त्र में तत्त्व या शास्त्रबुद्धिका होना मिथ्यात्व है ।
षट्खण्डागम धवला पुस्तक १२ में बन्ध प्रत्ययोंका निर्देश करनेवाला एक प्रत्यय नामका अनुयोगद्वार आया है । उसमें नयदृष्टिसे कर्मबन्धके कारणों का विचार किया गया है । नैगम, संग्रह और व्यवहार नयसे ज्ञानावरणादि कर्मोंके बन्धके कारणों का निर्देश करते हुए सूत्र ८ में मोहके साथ क्रोध, मान, माया और लोभको भी बन्धके कारणोंमें परिगणित किया गया है । तथा उन तीन नयोंसे सूत्र १० में मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानके साथ योगको भी बन्धके कारणों में परिगणित किया गया है। इससे स्पष्ट है कि जैसे क्रोधादि कषाय और योग नैगमादि तीन नयोंसे बन्धके कारण हैं वैसे ही मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान भी इन्हीं तीनों नयोंकी अपेक्षा बन्धके कारण हैं । इस अपेक्षासे इनमें समान रूपसे कारणता स्वीकार करनेमें किसी प्रकारका प्रत्यवाय नहीं है । आठ कर्मोंके बन्धके कारणोंका मात्र ऋजुसूत्र नयसे विचार करनेपर प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगसे तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं, यह स्वीकार किया गया है । इसलिये नैगम, संग्रह और व्यवहार नयसे मिथ्यात्व आदि पाँचों बन्धके कारण हैं जो यह आगममें स्वीकार किया गया है उसकी संगति बैठ जाती है । तथा ऋजुसूत्र नयसे योग और कषाय ये दो बन्धके कारण हैं इस कथनमें भी कोई बाधा नहीं आती । दोनों ही कथन अपनी-अपनी जगह आगमानुसार ही हैं । इन मेंसे किसी एकका भी अपलाप नहीं किया जा सकता, क्योंकि किसी एक कथनके अपलाप करनेका अर्थ होता है उस नय दृष्टिको अस्वीकार करना ।
(२) आगे इसपर विस्तारसे विचार करनेके पहले कर्मबन्धके जो पाँच कारण कहे गये हैं उनमें से मिथ्यात्व में बन्धकी कारणता क्यों स्वीकार की गई है इस विषयपर संक्षेपमें प्रकाश डालेंगे ।
यह तो सुप्रसिद्ध सत्य है कि जो पहला गुणस्थान मिथ्यात्व है उसमें उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षा जिन प्रकृतियोंकी बन्ध व्युच्छित्ति होती है वे प्रकृतियाँ १६ हैं । उनमेंसे एक मिथ्यात्व ध्रुवबन्धिनी प्रकृति है । मिथ्यात्व - रूप परिणामके साथ उसका बन्ध नियमसे होता ही रहता है । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाला जीव सम्यक्त्व आदिरूप परिणामोंसे च्युत होकर यदि मिथ्यात्व गुणस्थानमें आता है तो उसके प्रारम्भसे ही अनन्तानुबन्धी चतुष्कका बन्ध होकर भी एक आवलि काल तक अपकर्षणपूर्वक उसकी उदय उदीरणा नहीं होती ऐसा नियम है । अतः ऐसे जीवके एक आवलि काल तक अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप परिणामके न होनेपर भी मिथ्यात्व परिणामनिमित्तक मिथ्यात्व प्रकृतिका बन्ध होता ही है । साथ ही शेष १५ प्रकृतियोंका भी यथासम्भव
होता है ।
(३) यद्यपि वहाँ एक अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप परिणामको छोड़कर बन्धके अन्य सब कारण उपस्थित अवश्य हैं पर मिथ्यात्व प्रकृतिके बन्धका अविनाभाव सम्बन्ध जिस प्रकार मिथ्यात्व परिणामके साथ पाया जाता
१. ध० पु० १२ पु० २८३ ।
२. वही पृ० २८७ ।
३. संजोजिदअ णंताणुबंधीणमावलियामेत्तकालमुदीरणाभावादौ । ६० पु० १५ पृ० ७५ ।
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