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२९८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
महाव्रतको वह जीव स्वीकार करता है जिसके बध्यमान आयुकी अपेक्षा नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुकी सत्ता नहीं पाई जाती। यदि बध्यमान आयुकी अपेक्षा किसी आयुकी सत्ता उसके होवे भी तो वह एकमात्र देवायुकी ही सत्ता बनती है । इसका आशय यह है कि ऐसा जीव नियमसे देवयोनिका अधिकारी होता है । बाह्य में निरतिचार रूपसे व्रतोंको पालनेवाला ज्ञानी ही देवगतिका अधिकारी बनता है, वह यदि प्रशस्त रागवश परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध करेगा तो नियमसे देवायुका ही बन्ध करेगा । कर्मशास्त्रकी व्यवस्था ही ऐसी है । इससे यह स्पष्ट हो गया कि ज्ञानी जीव प्रशस्त रागवश यदि आयुबन्ध करे या आयुबन्धके बाद अणुव्रतमहाव्रत धारण करे तो स्वर्ग जाता है, और ऐसा जीव स्वर्गसे च्युत होकर तथा मनुष्य पर्याय प्राप्त कर और अपनी आत्मभावना द्वारा पूर्णरूपसे रत्नत्रय स्वरूप होकर मोक्षका पात्र बनता है ।
पर्याय दो प्रकार की है- स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय । धर्म अधर्म, आकाश और काल द्रव्यकी केवल स्वभाव पर्यायें होती हैं । तथा जीव और पुद्गलकी दोनों प्रकारकी पर्यायें होती हैं । जिनपर विकल्प द्वारा परकृतपनेका व्यवहार लागू होता है वे विभाव पर्यायें हैं । अर्थात् जिन पर्यायोंके होनेमें उनके बाह्य निमित्तों में विकल्प द्वारा प्रयोजकता स्वीकार की जाती है वे सब विभाव पर्यायें कहलाती हैं । और जिन पर्यायोंपर विकल्प द्वारा परकृतपनेका व्यवहार लागू नहीं होता वे स्वभाव पर्यायें हैं । विभाव पर्यायोंमें विभावका अर्थ ऐसे बाह्य निमित्त हैं जिनमें विकल्प द्वारा परकर्तृत्व, प्रयोजकता या प्रेरकता स्वीकार की जाती है । अतः धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्योंकी जितनी भी पर्यायें अनादि कालसे होती आ रही हैं, हो रही हैं और होवेंगी उन सबपर विकल्प द्वारा परकृतपनेका व्यवहार लागू नहीं होता, उनके ऐसे बाह्य निमित्त नहीं हैं जिनसे विकल्प द्वारा प्रयोजकता स्वीकार की जावे, अतः उन चारों द्रव्योंकी सब पर्यायोंको स्वभाव पर्याय रूपसे स्वीकार किया गया है ।
मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हुए या मुक्त जीवोंकी निश्चय सम्यग्दर्शन आदि रूप जितनी पर्यायें होती हैं उनपर भी विकल्प द्वारा परकृतपनेका व्यवहार लागू नहीं होता, इसलिए वे भी स्वभाव पर्यायें हैं ऐसा आगम में स्वीकार किया गया है। पुद्गल द्रव्यके प्रत्येक परमाणुकी परमाणु रूपसे रहते हुए जो पर्यायें होती हैं उनके विषय में भी उक्त व्यवस्था जान लेनी चाहिए । इसके अतिरिक्त जीवों और पुद्गलोंकी जितनी भी पर्यायें होती हैं उनपर विकल्प द्वारा परकृतपनेका व्यवहार लागू होनेसे वे सब विभाव पर्यायें कहलाती हैं ।
यह सब द्रव्योंकी पर्याय व्यवस्था है । इतना विशेष कि सब द्रव्योंकी जितनी भी पर्यायें होती हैं वे सब बाह्य और आभ्यन्तर सामग्री के सद्भावमें होती हैं। पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा सब पर्यायें क्रम नियमितपनेसे स्वयं होकर भी नैगमनयकी अपेक्षा उनके प्रत्येक समयमें बाह्य और आभ्यन्तर साधन स्वीकार किये गये हैं । आगममें कार्यकारणभावको स्वीकार करनेका यह रहस्य है । मात्र इस व्यवस्थाके दो अपवाद हैं । एक तो आकाश के स्वयंके अवकाशदानके लिए बाह्य निमित्त नहीं स्वीकार किया गया गया है । दूसरे काल द्रव्यके प्रत्येक समय के परिणमनके लिए भी कोई बाह्य निमित्त नहीं स्वीकार किया गया हैं । इस कथनकी पुष्टि तत्वार्थश्लोकवार्तिक और अनगारधर्मामृत आदि ग्रन्थोंसे भले प्रकारसे होती है ।
यद्यपि आगममें इन सब तथ्योंका निर्देश स्पष्ट रूपसे दृष्टिगोचर होता है, फिर भी उनकी उपेक्षा कर जैनतत्त्वमीमांसा की मीमांसा पुस्तकमें ऐसे स्वकल्पित मन्तव्योंका निर्देश किया गया है जिन्हें पढ़कर यह विश्वास नहीं होता कि ये सब तथ्य वहीं आगमका मन्थन कर निर्दिष्ट किये गये हैं । उदाहरणार्थ उक्त पुस्तकके पृ० १४१ पर लिखा है
'अगुरुलघुगुणके शक्त्यंशों (अविभाग प्रतिच्छेदों) में षड्गुणहानिवृद्धिरूप स्वभाव या गुणपर्यायें ही स्वप्रत्यय अर्थपर्यायें हैं तथा इन्हें छोड़ कर जितनी स्वभाव या गुणपर्यायें हैं वे सब स्वपरप्रत्यय अर्थपर्यायें हैं ।
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