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चतुर्थ खण्ड : २९९
जैसे आकाश उन सब पदार्थोंको अवगाहित कर रहा है जो विश्वमें विद्यमान है लेकिन आकाशका पदार्थोको अवगाहित करनेका स्वभाव असीमित है। अर्थात् विश्व में जितने पदार्थ विद्यमान हैं उनसे भी अनन्तगुणे पदार्थ यदि विद्यमान होते तो उन्हें भी आकाश अपने अन्दर अवगाहित कर सकता है। इससे जाना जाता है कि आकाशका पदार्थोको अवगाहित करने रूप परिण मन पदार्थाधीन होनेसे स्वपरप्रत्यय है। यही बात धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य और जीवद्रव्यके स्वभावके विषय में भी जान लेना चाहिए।'
पुनः १० २९४ में यहाँ लिखा है
'मुक्ति भी जीवको स्वपरप्रत्यय पर्याय है, अतः उसकी प्राप्तिके लिए भी निमित्त-नैमित्तिक भावरूप कार्यकारण भावपर दृष्टि रखना अनिवार्य हो जाता है।'
इन दो उद्धरणोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस पुस्तकके अनुसार सब द्रव्योंकी तीन प्रकारकी पर्यायें होती हैं-(१) स्वप्रत्यय पर्याय (२) स्व-परप्रत्यय स्वभाव पर्याय और (३) स्व-परप्रत्यय विभाव पर्याय ।
जयपुर (खानिया) तत्वचर्चाके समय भी दूसरे पक्षकी ओरसे यह स्वकल्पित पान्यता प्रस्तुत की गई थी। मालम नहीं कि उस पक्षके सब विद्वानोंका यह मत रहा है या किसी एक विद्वानका । यह सब अभी तक गर्भमें है कि दूसरे पक्षकी ओरसे जितना कुछ लिखा गया है उससे उस पक्षके कितने विद्वान सहमत हैं। तीसरे दौरकी जो प्रतिशंकाएं हमें प्राप्त हुई थीं उनमें न तो मध्यस्थके ही हस्ताक्षर थे और न पं० बन्शीधर जी व्या० आ० को छोड़ कर अन्य विद्वानोंके ही हस्ताक्षर थे इतना हम अवश्य जानते हैं । अस्तु,
इन तीन प्रकारकी पर्यायोंकी कल्पना मुख्यतया तत्वार्थसूत्रके 'निष्क्रियाणि च' इस सुत्रपर लिखी गई सर्वार्थसिद्धि टीकाके वचनके आधारपर की गई है ऐसा जैनतत्त्वमीमांसाकी मीमांसाके १० ४८ से ज्ञात होता है। इसके समर्थनमें वहाँ नियमसार गाथा १४ की टोकाके अंशको भी उद्धत किया गया है । सर्वार्थसिद्धिका वह वचन इस प्रकार है
द्विविध उत्पादः-स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च । स्वनिमित्तस्तावदनन्तानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्यादम्यगम्पमानानां षटस्थानपतितया वृद्धया हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेव तेषामत्पादो व्ययश्च । परप्रत्ययोऽपि अश्वादिगति-स्थित्यवगाहनहेतुत्वात् क्षणे क्षणे तेषां भेदात् तद्धेतुत्वमपि भिन्नमिति परप्रत्ययापेक्ष उत्पादो विनाशश्च व्यवह्रियते ।
उत्पाद दो प्रकारका है - स्वनिमित्त और परप्रत्यय । स्वनिमित्त-उत्पाद क्या है इसे बतलाते हुए आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं-आगम प्रमाण द्वारा स्वीकृत तथा षट्स्थानपतित वृद्धि और हानिके द्वारा प्रवर्तमान अनन्त अगुरुलघु गुणोंका स्वभावसे उत्पाद और व्यय होता है । परप्रत्यय उत्पाद और व्ययका व्यवहार वि प्रकार किया जाता है इसका स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य देव लिखते हैं कि अ-वादिकी गति स्थिति और अवगाहनके वे धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य क्रमसे हेतु होनेसे तथा क्षण क्षणमें उनमें भेद होनेसे उनके हेतु भी क्षण क्षणमें अन्य अन्य होते हैं इस प्रकार परप्रत्ययकी अपेक्षा भी उत्पाद और व्ययका व्यवहार किया जाता है।
सर्वार्थसिद्धिका यह उल्लेख बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इससे कई तथ्योंपर प्रकाश पड़ता है । यथा
(१) आगममें काल द्रव्यके साथ धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य निष्क्रिय माने गये है, इसी प्रसंगमें 'निष्क्रियाणि च' सूत्र आया है। यहाँ काल द्रव्य प्रकरण प्राप्त नहीं है, इसलिए उसका निर्देश तो आचार्य देवने नहीं किया है, परन्तु धर्मादि तीनों द्रव्योंके समान वह भी निष्क्रिय द्रव्य है, इसलिए उसकी परिगणना इन तीनों द्रव्योंके साथ हो जाती है।
(२। जब ये चारों द्रव्य निष्क्रिय हैं तो इनमें उत्पाद और व्यय कैसे घटित होता है ? इसी प्रश्नके उत्तर स्वरूप 'द्विविधः उत्पादः' इत्यादि वचन आया है। इसमें बतलाया गया है कि इनमें स्वभावमें ही उत्पाद और व्यय होता है अर्थात् इनके उत्पाद और व्ययमें परकृ तपनेका व्यवहार लागू नहीं होता है।
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