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चतुर्थ खण्ड : ३१३
होता है । क्रोध संज्वलनका जघन्य अनुभागबन्ध किसके होता है ? क्रोधसंज्वलनका अन्तमें अनुभागबन्ध करनेवाले अन्यतर क्षपक अनिवृत्तिकरण जीवके होता है ।
ये महाबन्धके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध अधिकारके महत्त्वपूर्ण उल्लेख हैं। इनको दृष्टिपथमें लेनेसे विदित होता है कि श्रेणि आरोहणके समयसे लेकर कषायविकल्प विश्रान्त होकर उपयोग परिणति वीतरागस्वरूप हो जाती है । यही कारण है कि वहाँ द्रव्यानुयोगमें ध्यानकी एकतानताका निर्देश करते हुए बतलाया है कि जहाँ अन्तर्जल्प और बहिर्जल्पका अभाव होकर अनुभूतिमात्र आत्माकी अवस्था होती है वही परम उत्कृष्ट ध्यान है।
३ अनुभागबन्ध-इस अनुयोगद्वारके मूलप्रकृतिअनुभागबन्ध और उत्तरप्रकृतिअनुभागबन्ध ये दो विभाग हैं । मूलप्रकृतिअनुभागबन्धका विवेचन करते हुए सर्वप्रथम निषेकप्ररूपणा और स्पर्धकप्ररूपणाका विवेचन किया है।
__ निषेकप्ररूपणा-प्रति समय जो मूल और तदनुरूप उत्तर प्रकृतियोंका बन्ध होता है उसका दो प्रकारसे होता है-एक तो स्थितिबन्धकी अपेक्षा और दूसरा अनुभागबन्धकी अपेक्षा । आबाधा कालको छोड़कर शेष स्थितियोंके प्रत्येक समयमें जो कर्मपुञ्ज प्राप्त होता है उसे स्थितिबन्धकी अपेक्षा निषेक कहते हैं । इस प्रकार प्रत्येक समय बंधनेवाला कर्म अपनी-अपनी स्थितिके अनुसार आबाधासे ऊपरके सब स्थितिविकल्पोंमें उत्तरोत्तर एक-एक चयकी हानिके क्रमसे विभाजित होता रहता है। मात्र आबाधाका जितना काल परिमाण होता है उसमें निषेक रचना नहीं होती। यह तो स्थितिबन्धके अनुसार बँधनेवाले कर्मके विभाजनका क्रम है । अनुभागकी अपेक्षा जघन्य अनुभागवाले कर्म परमाणुओंकी प्रथम वर्गणा होती है । तदनुसार प्रत्येक परमाणुको वर्ग कहते हैं। क्रमवृद्धिरूप अनुभागशक्तिको लिए हुए अन्तर रहित ये वर्गणायें जहाँ तक पाई जाती हैं उन सबकी मिलकर स्पर्धक संज्ञा है। ये स्पर्धक देशघाति और सर्वघाति दो प्रकारके होते हैं । ये दोनों प्रकारके स्पर्धक स्थितिबन्धके अनुसार जो निषेक रचना कही है उसके प्रथम निषेकसे लेकर अन्त तक पाये जाते हैं।
स्पर्धकप्ररूपणा-पर्यायशक्तिके अविभागी अंशका नाम अविभागप्रतिच्छेद है। ऐसे अनन्त अविभागप्रतिच्छेद एक वर्गमें पाये जाते हैं। तथा वे वर्ग मिलकर एक वर्गणा बनती है और ऐसी अनन्तानन्त वर्गणाएँ मिलकर एक स्पर्धक होता है । इतना अवश्य है कि प्रथम वर्गणाके प्रत्येक वर्गमें समान अविभागप्रतिच्छेद होते है। दूसरी वर्गणाके प्रत्येक वर्ग में एक अधिक अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक स्पर्धककी अन्तिम वर्गणा तक जानना चाहिए।
__ ये दो अनुयोगद्वार आगेकी प्ररूपणाके मूल आधार हैं। उनके अनुसार अनुभागबन्धका विचार संज्ञा आदि २४ अधिकारों द्वारा किया गया है।
संज्ञाका विचार करते हुए बतलाया है-संज्ञा दो प्रकारकी है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । जो ज्ञानावरणादि आठ कर्म हैं वे धाति और अघाति इन दो भागोंमें विभाजित हैं । घातिकर्म भी दो प्रकारके हैंदेशघाति और सर्वधाति । घातिकर्मोका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वघाति ही होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वधाति और देशघाति दोनों प्रकारका होता है । जघन्य अनुभागबन्ध देशघाति ही होता है । अजघन्य अनुभागबन्ध देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारका होता है । तथा अघातिकर्मोका अनुभागबन्ध देशघाति ही होता है।
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