________________
३३२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-प्रन्थ कम अधिक कितना ज्ञान उत्पन्न होना सम्भव है इसकी यहाँ मीमांसा नहीं की गई है। (३) दूसरी प्ररूपणामें श्रुतज्ञानके जो बीस भेद किये गये हैं वे भेद मुख्यतया पूर्वगत श्रुतको ध्यानमें रखकर ही किये गये हैं । इसलिये यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि पूर्वगतके चौदह भेदोंमेंसे ग्यारह अंग, परिक्रम, सूत्र प्रथमानुयोग और चूलिकाका अन्तर्भाव हो नहीं सकता। ऐसी अवस्थामें उनका अन्तर्भाव श्रुतज्ञानके किस भेदमें होता है ? इस प्रश्नका समाधान करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि उक्त श्रुतके भेदोंका अनुयोगद्वार-समासमें अन्तर्भाव हो जाता है। (४) हम पहले अक्षरके तीन भेद कर आये हैं-प्रथम भेद लब्ध्यक्षरको दृष्टिमें रखकर श्रुतज्ञानके उक्त २० भेदोंकी प्ररूपणा मुख्यतया श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमको निमित्त कर उत्पन्न हुए ज्ञानकी मुख्यतासे ही की गई है । फिर भी इनका निवृत्यक्षर और स्थापनाक्षरके साथ किस विधिसे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध बनता है, इसे समझनेके लिए गोम्मटसार ज्ञान मार्गणाका उक्त प्रकरण द्रष्टव्य है । (५) श्रुतके सब अक्षरोंमें मध्यम पदका भाग देनेपर अन्तमें जो अक्षर शेष रहते हैं, उनके आलम्बनसे इन्द्रभूति गौतम गणधरने सामायिक आदि चौदह अंगबाह्य श्रुतकी रचना की है, इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए ।
इस प्रकार अंगश्रुतके परिप्रेक्ष्यमें पूर्वगत श्रुतके कितने भेद है, उनका स्वरूप क्या है, और उनकी वाचना लेने-देनेका अधिकारी कौन है, आदि विषयोंको इस निबन्धमें संक्षेपमें निरूपण किया गया है।
१. धवला पुस्तक १३, पृ० २७६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org