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ऐतिहासिक आनुपूर्वी में कर्म-साहित्य कर्म साहित्यमें जिन' ८ या १०२ करणोंका उल्लेख दृष्टिगोचर होता है उनमें एक उपशमनाकरण भी है । उसके दो भेद है-करणोपशामना और अकरणोपशामना । करणोपशामनाके भी देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना ये दो भेद हैं । ये दोनों भेद श्वेताम्बर कर्मग्रन्थोंमें भी दृष्टिगोचर होते हैं।
कषायपाहड और उसकी जयधवला टीकामें देशकरणोपशामनाका खुलासा करते हए लिखा है कि देशकरणोपशामनाके दो नाम हैं-देशकरणोपशामना और अप्रशस्तउपशामना । इसका स्पष्टीकरण करते हुए जयधवलामें बतलाया है कि यह संसारी जीवोंके अप्रशस्त परिणामोंके निमित्तसे होती है, इसलिये इसका पर्यायवाची नाम अप्रशस्त उपशामना भी है। और यह कथन असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि अति तीव्र संक्लेश परिणामोंके कारण अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तीकरण, और निकाचनाकरणकी प्रवृत्ति होती है। क्षपक श्रेणि और उपशम श्रेणिके विशुद्धतर परिणामोंके कारण इसका विनाश भी देखा जाता है, इसलिये भी यह अप्रशस्त है यह सिद्ध हो जाता है। इसका विशेष विवेचन कषायप्राभूत चूणिके अनुसार दूसरे अग्राणीय नामक पूर्वकी ५वीं वस्तु अधिकारके चौथे महाकर्मप्रकृति नामक अनुयोगद्वारमें देखना चाहिये।
यह कषायप्राभत चणि और उसकी जयधवला टीकाका वक्तव्य है। किन्तु श्वेताम्बर कर्म-प्रकृति और उसकी चणिमें इसके उक्त दो नामोंके अतिरिक्त अगुणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना ये दो नाम और दृष्टिगोचर होते हैं। जब कि इनमेंसे अगुणोपशामना यह नाम कषायप्राभृतचूर्णिमें आगे पीछे कहीं भी नहीं होता । यहाँ देशोपशामनाका अप्रशस्तोपशामनाके समान अगुणोपशामना यह नाम लेना चाहिये या नहीं, विचारका यह मुख्य मुद्दा नहीं है। यहाँ विचार तो इस बातका करना है कि यदि कषायप्राभूतचणि लिखते समय यतिवृषभ आचार्यके सामने श्वेतांबर कर्म प्रकृति उपस्थित थी तो वे देशोपशामनाके पर्यायवाची नामोंका उल्लेख करते समय उसका एक नाम अगुणोपशामनाका उल्लेख क्यों भूल गये? इससे स्पष्ट है कि देशोपशामनाका विवेचन देखनेके लिये जो आचार्य यतिवृषभने अपनी चुणिमें "एसा कम्मपयडीसु" पदका उल्लेख किया है उससे उनका आशय दूसरे पूर्वकी ५वीं वस्तुके चौथे प्राभृतसे ही रहा है, श्वेतांबर कर्मप्रकृतिसे नहीं।
इस विषयमें स्व. पं० श्री हीरालालजी सि. शास्त्रीने जो कल्पनाओंका जाल बिछाया है वह उन्हींको शोभा देता है । यहाँ उक्त पंडितजीको इस विषयपर एक पक्षमें अपनी मोहर लगाते समय कई दृष्टियोंसे विचार करना चाहिये था । पहिले तो भाषाकी दृष्टिसे विचार करना चाहिये था, दूसरे विषय विवेचनकी दष्टिसे विचार करना चाहिये था और तीसरे पारिभाषिक शब्दोंकी दृष्टिसे भी विचार करना चाहिये था।
भाषाकी दृष्टिसे विचार करनेपर तो दोनोंकी प्ररूपणामें जो भेद दृष्टिगोचर होता है वह स्पष्ट ही . है । जब कि दिगंबर परम्परामें पूरा आगमसाहित्य सौरसेनी प्राकृतमें लिखा गया है, वहाँ श्वेतांबर आगम
१. क० पा० भाग १४ पृ० ३२ ३. क. पा० भाग १४ पृ०८ ५. वही पृ०८
२. गो० क० गाथा ४३७ ४. क० पा० भाग १४ पृ० ८
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