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३३४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ साहित्यमें सौरसेनी प्राकृतको स्पर्श तक नहीं किया गया है, उसे श्वेतांबर विद्वान् अर्धमागधी कहते अवश्य है पर उसमें वह रूप भी पूरी तरहसे दिखायी नहीं देता।
विषय विवेचनकी दृष्टिसे विचार करनेपर दिगंबर परंपराके कर्म साहित्यमें जो गुणस्थान और मार्गणास्थानोंकी दृष्टिसे जिस क्रमको स्वीकार करके विवेचन किया गया है वह क्रम श्वेतांबर कर्म साहित्यमें दृष्टिगोचर नहीं होता।
पारिभाषिक शब्दोंकी दृष्टिसे भी विचार करनेपर दोनों परंपराओंके कर्म विषयक शास्त्रोंमें कतिपय ऐसे शब्द प्रयोग पाये जाते हैं जो अपनी-अपनी परंपरामें ही स्वीकार किये गये हैं। जैसे--(१) श्वेतांबर कर्मप्रकृतिमें और उसकी चूर्णिमें प्रदेशपुञ्जके स्थानपर ' दलिय" दलक शब्दका प्रयोग हुआ है ।' किन्तु कषायप्राभृत मूल और उसकी चूर्णिमें इस शब्दके स्थानमें मात्र 'अग्ग' अग्र शब्दका प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । किन्तु अग्र शब्दके स्थ नमें दलिय शब्दका प्रयोग भूलसे भी कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिमें कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता।
(२) स्वेतांबर कर्मप्रकृति और उसकी चूणिमें नपुंसक वेदके अर्थमें नपुंसकवेद शब्दका प्रयोग तो हुआ ही है । साथ ही इस अर्थमें 'वरिसवर' शब्दका भी प्रयोग हुआ है। जबकि कषायप्राभृत मूल और उसकी चूणिमें एकमात्र नपुंसकवेद शब्दका ही प्रयोग हुआ है ।
___श्वेतांबर कर्मप्रकृतिमें अविरतसम्यग्दृष्टिके लिये 'अजऊ' शब्दका प्रयोग हुआ है तथा इसकी चूर्णिमें इसके स्थानमें 'अजत' शब्द दृष्टिगोचर होता है। जबकि कषायप्राभृत और उसकी चूणिमें अविरतं सम्यग्दृष्टिके अर्थमें इस शब्दका प्रयोग नहीं ही हुआ है ।
शब्द प्रयोगके ये कतिपय उदाहरण हैं जिनको दष्टिमें लेनेसे भी यही निश्चित होता है कि इन दोनों चणियोंके कर्ता आचार्य यतिवृषभ नहीं हो सकते, यह स्पष्ट ही है।
स्व. श्री पं० हीरालालजीने कषायपाहुड़ सुत्तकी प्रस्तावनामें एक मुद्दा यह भी उपस्थित किया है कि श्वेतांबर कर्मप्रकृतिमें गाथा ६६ से ७१वीं गाथा तककी इन ६ (छह) गाथाओं द्वारा देशोपशामनाका विस्तृत विवेचन किया गया है, इसलिये उसमें यह स्वीकार किया है कि आ० यतिवृषभके सामने श्वेतांबर कर्मप्रकृति रही है । उन्होंने देशोपशामनाके स्वरूप आदिके समझनेके लिये 'एसा कम्मपयडीसु' लिखकर जिस कर्मप्रकृतिकी ओर संकेत किया है वह श्वेतांबर कर्मप्रकृति ही है।
किन्तु श्वेतांबर कर्मप्रकृतिकी जिन ६ गाथाओंमें सब कर्मोंके उत्तरभेदोंकी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश भेदसे जिस देशोपशामनाका निर्देश किया गया है उसका आशय इतना ही है कि देशोपशामना अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक ही होती है, अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें देशोपशामनाकी व्युच्छित्ति ही रहती है, सो यह अभिप्राय तो कषायप्राभूत और उसकी चूणिमें प्रतिपादित दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी उपशमना और क्षपणाके कथनसे ही फलित हो जाता है। यतिवृषभाचार्यने अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरणका स्वयं निषेध किया ही है। अतः मात्र इतने अभि
१. गाथा २२ और उसकी चूर्णि । ३. गाथा ६५ और उसकी चूणि ।
२. गाथा ६२ और उसकी चूणि । ४. गाथा २७ और उसकी चूणि ।
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