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चतुर्थ खण्ड : ३३९
मलाचार और रत्नकरण्डश्रावकाचार, ये शास्त्र विक्रमको प्रथम शताब्दिके समयमें या उससे पूर्व लिखे गये हैं। इससे लगता है कि इस कालमें जातिव्यवस्था प्रचलित होकर तियंच योनिमें हाथी, घोड़ा और गौ आदि भेदोंके समान मनुष्य समाज भी अनेक भागों में विभक्त कर दिया गया था। एक-एक वर्णके भीतर जो अनेक जातियाँ और उपजातियाँ दिखायी देती हैं, यह उसी व्यवस्थाका परिणाम है ।
यद्यपि यहाँ यह कहा जा सकता है कि मुलाचार और रत्नकरण्डश्रावकाचारमें जिन जातियोंको उल्लिखित किया गया है वे वर्तमानमें एक-एक वर्ण के भीतर प्रचलित अनेक जातियाँ न होकर उन वर्णोंको ही उन ग्रन्थोंमें जाति शब्द द्वारा अभिहित किया गया है । इसलिये वर्तमान कालमें एक-एक वर्णके भीतर प्रचलित अनेक जातियोंको उतना पुराना नहीं मानना चाहिये । किन्तु वर्तमानमें जितनी भी जातियाँ प्रचलित हैं इनकी पूर्वावधि अधिकसे अधिक सातवीं-आठवीं शताब्दी हो सकती है। ऐसा अनेक ऐतिहासिकोंका मत है। आचार्य क्षितिमोहनसेन उनमें मुख्य हैं।
प्राग्वाट इतिहास (प्रथम भाग) की भूमिकामें पृ० १३ पर श्री अगरचन्द नाहटा लिखते हैं-"राजपुत्रोंकी आधुनिक ज्ञातियों और वैश्योंकी अन्य ज्ञातियोंके नामकरणका समय भी विद्वानोंकी रायसे ८वीं शतीके लगभगका ही है। सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् श्री चितामणि विनायक वैद्यने अपनी 'मध्ययुगीन भारत' में लिखा है-"विक्रमकी ८वीं शताब्दी तक ब्राह्मण और क्षत्रियोंके समान वैश्योंकी सारे भारतमें एक ही जाति थी।"
श्री सत्यकेतु विद्यालंकार क्षत्रियोंकी ज्ञातियोंके सम्बन्धमें अपने ग्रन्थ 'अग्रवाल ज्ञातिके प्राचीन इतिहास' के पृ० २२८ पर लिखते हैं-भारतीय इतिहासमें ८वीं सदी एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तनकी सदी है । इस कालमें भारतकी राजनैतिक शक्ति प्रधानतया उन ज्ञातियोंके हाथमें चली गई, जिन्हें आजकल राजपुत्र कहा जाता है । भारतकी पुराने व राजनैतिक शक्तियोंका इस समय प्रायः लोप हो गया। पुराने मौर्य, पांचाल, अंधकवृष्णि, क्षत्रिय, भोज आदि राजकुलोंका नाम अब सर्वथा लुप्त हो गया और उनके स्थान पर चौहान, राठौर, परमार आदि नये राजकुलोंकी शक्ति प्रकट हुई।
स्वर्गीय पूर्णचन्द्रजी नाहरने भी ओसवाल वंशकी स्थापनाके सम्बन्धमें लिखा है कि "वीर-निर्वाणके ७० वर्षमें ओसवाल-समाजकी सृष्टिको किंवदन्ती असंभवसी प्रतीत होती है"। जेसलमेर-जैन-लेख-संग्रहकी भूमिकाके पृ० २५ में "संवत् पाँच सौके पश्चात् और एक हजारसे पूर्व किसी समय उपकेश (ओसवाल) जातिकी उत्पत्ति हुई होगी', ऐसा अपना मत प्रकट किया है। - किन्तु ७वीं-८वीं शताब्दीके पूर्व वर्ण ही जाति संज्ञासे अभिहित किये जाते रहे हों, ऐसा एकान्तसे तो नहीं कहा जा सकता । यह बात ठीक है कि ब्राह्मणोंने अपने वर्णकी उत्कृष्टता बनाये रखनेके लिये उसे पाणिनीय कालमें ही कर्मसे न मानकर जन्मसे मानना प्रारम्भ कर दिया और इस प्रकार ब्राह्मण आदि वर्गों के स्थानमें वे जातियां कहलाने लगीं, फिर भी प्रदेश-भेद और आचार-भेदसे उनमें ८वी-९वीं शताब्दीके पूर्व इन वर्णोके भीतर उत्तर-भेदोंकी सृष्टि न हई हो, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जितने हम पिछले (पूर्व) कालकी ओर जाते हैं उतना ही उनमें प्रदेशभेद और आचारभेदसे भेद होता हुआ अनुभवमें आता है।
डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल अपने 'पाणिनिकालीन भारतवर्ष' ग्रन्थकी भूमिकामें लिखते हैं
१. भिन्न-भिन्न देशोंमें बस जानेके कारण ब्राह्मणोंके अलग-अलग नामोंकी प्रथा चल पड़ी थी। १. प्राग्वाट-इतिहास, प्र० भाग भूमिका पृ० १३ ।
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