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३३०. : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
ऐसे चार पदोंसे निष्पन्न श्लोकके द्वारा किसी भी ग्रन्थकी परिगणना की जाती है। किन्तु १२ अंगोंमें जिस पदके द्वारा उस-उस अंग या उसके उत्तर भेदोंके प्रमाणकी परिगणना की जाती है, उसकी आगममें एक मात्र मध्यम पद संज्ञा है।
इस हिसाबसे एक मध्यम पदमें श्रु तज्ञानके कुल अक्षर १६३४८३०७८८८ होते हैं, और बारह अंगोंके कुल पद ११०८३५८००५ होते हैं ।२।।
यह इतना विशेष जानना चाहिए कि प्रकृतमें एक-एक मध्यम पदमें अक्षरोंकी अपेक्षासे जो समानता कही गई है, सो वह संयोगाक्षरोंकी अपेक्षासे ही कही गई है। एक-एक संयोगाक्षरमें जो अवयव अक्षर कम अधिक होते हैं, उनकी अपेक्षासे नहीं, क्योंकि कोई संयोगाक्षर मात्र दो प्रत्येक अक्षरोंके सुमेलसे बनता है और कोई संयोगाक्षर अधिकसे अधिक ६४ अक्षरोंके सुमेलसे बनता है । इसलिए कोई भी संयोगाक्षर कितने ही प्रत्येक अक्षरोंके संयोगसे भले ही बने, पर वह एक अक्षर ही माना जायेगा। अतः संयोगाक्षरको एक मानकर उनकी अपेक्षा सब मध्यम पदोंके अक्षर समान ही होते हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिए।
यहाँ जिन तथ्योंका हमने निर्देश किया है उन्हें प्रकृतमें एक दो उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया जाता है"अ" का अर्थ विष्णु है या 'अ सि आ ऊ सा' मन्त्रमें उसका अर्थ 'अरहन्त' है। यह मध्यम पदमें जहाँ सार्थक एक संयोगी अक्षर है वहाँ उक्त तीन पदोंकी अपेक्षासे इसे अर्थ पदका भी उदाहरण माना जा सकता है। "या श्रीः सा गौः जहाँ यह मध्यपदकी अपेक्षासे अनुलोम विलोम उभयरूप सार्थक एक संयोगाक्षरका उदाहरण है वहाँ अर्थपदकी अपेक्षासे “या श्री सा गौ" ये चारों प्रत्येक अर्थ पद है । ८. द्वितीय प्ररूपणा
यहां तक अक्षरोंके भेदसे श्रुतज्ञानकी प्ररूपणा की गई है उसकी अपेक्षासे मूल अक्षर ६४ होनेसे श्रुत ज्ञान भी ६४ प्रकारका है तथा मूल अक्षरोके साथ संयोगी अक्षरोके संख्यात होनसे श्रुतज्ञान भी उतने प्रकारका हो जाता है । इस प्रकार श्रतके अक्षरोंको अपेक्षासे श्रृतज्ञानके भेदोंकी प्ररूपणा करके आगे क्षयोपशमकी अपेक्षासे श्रुतज्ञानके भेदकी प्ररूपणा की गई है।
इस अपेक्षासे श्रुतज्ञानके मूल भेद २० हैं । श्रुतज्ञानमे सबसे जघन्य ज्ञानका नाम लब्ध्यक्षर है । यह केवलज्ञानके अनन्तवें भाग प्रमाण है। यह नित्य उघाटित और निरावरण है। इसमें सब जीव राशिका भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे, उसे उसी लब्ध्यक्षर ज्ञानमें मिलाने पर श्रुतज्ञानके प्रथम भेद पर्यायज्ञानकी उत्पत्ति होती है । लब्ध्यक्षर और पर्यायज्ञानके मध्य श्रुतज्ञानका अन्य कोई भेद नहीं है. यह इसका तात्पर्य है ।
श्रुतज्ञानका दूसरा भेद पर्यायसमास है । इसके असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं, जो अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातनागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिके क्रमसे उत्पन्न होते हैं। यहाँ अनन्तका भाग देनेके लिए या गुणा करनेके लिए सर्व जीव राशिका जितना प्रमाण हो, अनन्तका प्रमाण उतना लेना चाहिए । असंख्यात का भाग देनेके लिए या गुणा करनेके लिए उत्कृष्ट असंख्यात
१. वही, पृ० २६६ ३. धवला, पृ० १३, पृ० २६७ ५. वही १० २५९। ७. धवला, पु० ५३ पृ० २६५ ।
२. वही, पृ० २६६ ४. वही, पृ० २६७ ६. वही, पृ० २६५। ८. वही, पृ० २६३ ।
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