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३२६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
आँखोंका जो स्थान है, अंगश्रुतमें पूर्वगत श्रुतका वही स्थान है। इस कालमें तत्त्वज्ञान विषयक जितना श्रुत उपलब्ध होता है, मुख्यतया उसका योनि स्थान पूर्वगत श्रुत ही है।
जातिकी अपेक्षासे द्रव्य छः है-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। ये स्वतःसिद्ध हैं, अतएव अनादि-अनन्त हैं और स्वसहाय हैं। समग्र लोक इनमें व्याप्त या रचित होनेके कारण उसे अनादि, अनिधन या अकृत्रिम कहा गया । अर्थरूपसे पूर्वगत श्रुतकी प्ररूपणाका मुख्य विषय यही है, इसलिए इसका पूर्वगत यह नाम सार्थक है ।
दृष्टिवादके जिन पाँच भेदोंका हम पहले उल्लेख कर आये हैं, उनके नाम है-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत या पूर्वकृत और चूलिका । इनमें दूसरा भेद जो सूत्र है उसमें संकलनारूपसे ३६३ एकान्त दृष्टियोंका विवेचन होनेसे दृष्टिवादकी वक्तव्यता जहाँ स्वसमय-परसमयकी दृष्टिमें उभयरूप है वहाँ पूर्वगत श्रुतमें मात्र अनेकान्त स्वरूप स्वसमयकी ही प्ररूपणा हुई है, इसलिए आगमोंमें इसकी वक्तव्यता स्वसमयरूप ही स्वीकार की गई है।
पूर्वानपर्वीसे १२ अंगोंके नाम है-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र, और दृष्टिवाद ।' इनकी वाचनाका क्रम भी यही है। सर्वप्रथम गुरु या आचार्य अपने उत्तराधिकारी शिष्यको आचारांगकी वाचना देता है। और इस प्रकार क्रमसे ११ अंगोंकी वाचना देनेके बाद ही गुरु शिष्यको दृष्टिवादकी वाचना देते हुए सबके अन्तमें पूर्वगतकी वाचना देता है। वस्तुतः चूलिकाका अन्तर्भाव पूर्वगतके अन्तर्गत होता है। क्योंकि इसमें विद्यानुवाद सम्बन्धी विद्याओंका ही प्रमुखतासे विवेचन हुआ है। इसका चूलिका यह नाम भी इसीलिए
सार्थक है।
पूर्वगत श्रुतके १४ भेद हैं-उत्पादपूर्व, अग्रायण, वीर्यप्रवाद, अस्ति-नास्ति प्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्याननामधेय, विद्यानुप्रवाद, कल्याणनामधेय, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार । पूर्वगत श्रुतके जिस क्रमसे ये नाम हैं गुरु अधिकारी शिष्यको उनकी वाचना भी उसी क्रमसे देता है, यह शाश्वत नियम है । इसकी पुष्टि वेदना खण्ड कृति अनुयोगद्वारमें निबद्ध दो मंगलसूत्रोंसे भी होती है।
प्रथम मंगल सूत्र द्वारा अभिन्न दशपूर्वी जिनोंको नमस्कार किया गया है। उसके बाद चौदहपूर्वी जिनोंको नमस्कार किया गया है। इनमेंसे प्रथम मंगलसूत्रकी व्याख्या करते हुए आचार्य वीरसेनने यह शंका उठाई है कि पहले चौदहपूर्वी जिनोंको नमस्कार न कर दशपूर्वी जिनोंको क्यों नमस्कार किया गया है ? इसका समाधान स्वयं उन्होंने दो प्रकारसे किया है। अन्तिम समाधानमें उन्होंने पहले दशपूर्वियोंको नमस्कार करनेका मुख्य कारण श्रुत परिपाटीको ही बतलाया है।
इन्द्रभूति गौतम गणधरने आचारांगादि सूत्र पठित क्रमसे द्वादशांगश्रुत निबद्ध किया, मात्र इतना ही यहाँ श्रुतपरिपाटीसे तात्पर्य नहीं है। किन्तु प्रकरणके अनुसार उक्त वचनसे विदित होता है कि गुरु-शिष्य
१. पंचाध्यायी ११६ ३. धवला, पु० ९, पृ० १९७ ५. वही, पृ० २०९ ७. धवला, पु०, पृ० ६९ ९. वही, पृ०७०
२. धवला, पु० ९, पृ० २१९ ४. वही, पृ० ७१ ६. वही, पृ० २१२ ८. वही, पृ० ७०
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