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अंगश्रुतके परिप्रेक्ष्यमें पूर्वगत श्रुत
ज्ञान आत्माका स्वभाव है और वह उसका आत्मभूत लक्षण भी है। उसके पाँच भेद हैं।' उनमें केवलज्ञान और श्र तज्ञान ये दो ज्ञान मुख्य है। सर्व तत्त्वोंके प्रकाशनमें केवलज्ञानको जो स्थान प्राप्त है, छद्मस्थके जीवनमें वही स्थान श्रुतज्ञानका है ।२ अन्तर्मुख हुआ यह आत्मप्राप्तिका प्रधान साधन है। यह श्रुतज्ञान ही है जिसके माध्यमसे संसारी प्राणी अबद्ध-स्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्माको स्वस वेदन प्रत्यक्षसे जानकर स्वावलम्बन द्वारा जीवनमें व्यक्ति-स्वातंत्र्यकी प्रतिष्ठा करनेमें समर्थ होता है। जहाँ तक द्रव्यश्रुतका प्रश्न है, उसके अभ्याससे ही विशेष श्रुतज्ञानकी प्राप्ति होती है, इसलिए आगममें श्रुतज्ञानका प्रतिपादन द्रव्यश्रुतके रूपमें भी किया गया है। १. सादि-अनादि विचार
जिम श्रुतकी सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थकर महावीरने अर्थरूपसे प्ररूपणा की है और उनके प्रथम दीक्षित शिष्य गौतम गणधरने उसे ग्रंथबद्ध किया है, अर्थरूपमें उसी श्रुतकी प्ररूपणा पर्यायक्रमसे होनेवाले तीर्थंकरोंके माध्यम से होती आ रही है, इसलिए वह सादि होकर भी अनादि है।" २. श्रुतके भेद
उसके अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत ये दो भेद है। उनमें अक्षर श्रुत मुख्य है । वह भी अंग बाह्य और अंगप्रविष्टके भेदसे दो प्रकारका है । अंगबाह्यके मुख्य भेद १४ हैं । वैसे आरातीय आचार्यों द्वारा जो तदनुरूप श्रुत निबद्ध किया गया है उसकी भी अंगबाह्य संज्ञा है।
अंगप्रविष्ट श्रुतके १२ भेद हैं। अन्तिम भेद दृष्टिवाद है। यह अनेक प्रकारकी दृष्टियोंका कथन करता है, इसलिए इसका दृष्टिवाद यह गुणनाम है। इसमें पर समयकी स्थापना करके उसके निरसनपूर्वक मुख्यतासे स्वसम्यकी स्थापना की गई है, इसलिए इसकी वक्तव्यता उभयरूप है। इसके पाँच अर्थाधिकार है। चौथा अर्थाधिकार पूर्वगत है ।१० प्राकृतमें इसका विचारक्रम प्राप्त है, अतः आगे उसे माध्यम बनाकर विशेष ऊहापोह किया जाता है । ३. पूर्वगतश्रुत और उसकी महत्ता
पूर्वगत श्रुत अंगश्रुतका प्रमुख भाग है। अंग शब्दकी निरुक्ति है जो त्रिकालगोचर समस्त द्रव्य और उनकी पर्यायोंको "अंगति" अर्थात प्राप्त होता है या व्याप्त करता है वह अंग है।' वस्तुतः अंग शब्दकी यह निरुक्ति पूर्वगत श्रुतपर समग्र रूपसे घटित होती है। पूर्वगत श्रुतके उत्तर भेदोंके जो नाम है और उनमें तत्त्वज्ञान विषयक जिस प्रकारके विषयका विवेचन किया गया है, यह इसीसे स्पष्ट है । शरीरमें रीढ़का या
१. तत्त्वार्थसूत्र, अ० २, सू० ८ ३. समयसार, गा० १५ ५. सर्वार्थसिद्धि, अ० १, स० २०, विशेषावश्यक भाष्य; गाथा ५३६ आ ६. त० सू०, अ० १ सू० २० ८. वही, पृ० २०५ १०. वही, पृ० २०५
२. आप्तमीमांसा, का० १०५ ४. त० सू०, अ०, सू २० ७. धवला पु० ९, पृ० २०४ ९. धवला, पु० ९, पृ० २०५ ११. धवला, पृ० १९३
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