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चतुर्थ खण्ड : ३१७ सत्प्ररूपणाके ९३वें सूत्रमें 'मनुष्यिनी' पदका द्रव्यस्त्री अर्थ करनेवाले महानुभावोंको भय यह है कि षटखण्डागम दिगम्बर परम्पराका अंग-पूर्वगत मूल आधार श्रुत होनेसे यदि उसमें कहीं भी 'मनुष्यिनी' पदका अर्थ द्रव्यस्त्री' किया गया नहीं माना जाय तो द्रव्यस्त्रियों की मुक्तिसिद्धिके साथ सवस्त्र मुक्तिकी सिद्धि हो जायगी । किन्तु उनके द्वारा इस भयके कारण मूल आगममें संशोधन किया जाना आगमके आशयको न समझनेका ही कुफल है । आचार्य वीरसेनने इस शंकाको स्वतन्त्र मानकर दो स्थलों पर इसका उत्तर दिया है।
प्रथम तो उन्होंने इस प्रश्नका समाधान जीवस्थान-सत्प्ररूपणाके ९३वें सूत्रकी टीकामें ही कर दिया है। वहाँ वे स्पष्ट लिखते हैं कि द्रव्यस्त्रियाँ सवस्त्र होनेसे अप्रत्याख्यान गुणस्थानवाली होती है, इसलिए उनके संयमभावकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । इस पर पुनः शंका की गई है कि वस्त्रके रहते हुए भी उनके भावसंयम बन जानेमें आपत्ति ही क्या है ? इसका समाधान करते हुए वे लिखते हैं कि जब वे भावअसंयमके अविनाभावो वस्त्रादिको स्वीकार किये रहती हैं, ऐसी अवस्थामें उनके भावसंयम नहीं बन सकता।
दूसरा स्थल वेदनाकालविधानके १२वें सूत्रको टीका है। यहाँ पर सिद्धान्त ग्रन्थोंमें स्त्रीवेद शब्दका वाच्यार्थ भाववेद है, द्रव्यस्त्रीवेद नहीं है इस अभिप्रायको दो प्रमाण देकर स्पष्ट किया गया है। यहाँ वेदनाकालविधानके इस सूत्रमें अन्य वेदवालोंके साथ स्त्रीवेदी जीव भी नारकियों और देवोंसम्बन्धी तेंतीस सागर आयुका बन्ध करते हैं यह कहा गया है । इस पर यह शंका हुई कि इस सूत्रमें स्त्रीवेद शब्दका वाच्यार्थ क्या है-भावस्त्रीवेद या द्रव्यस्त्रीवेद । वीरसेन स्वामीने एक अन्य प्रमाण देकर इस शंकाका समाधान किया है। अन्य प्रमाणमें स्त्रियों (द्रव्यस्त्रियों) का छठी पृथ्वी तक मर कर जाना बतलाया है। विन्तु इस सूत्रमें स्त्रीवेदीके तेंतीस सागर आयुबन्धका विधान किया है । इस परसे वीरसेन स्वामीने यह निष्कर्ष फलित किया है कि सिद्धान्त ग्रन्थोंमें स्त्रीवेद शब्दका वाच्यार्थ भावस्त्रीवेद ही विवक्षित है। यदि ऐसा न होता तो यहाँ पर इस सूत्रमें आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलि अधिकसे अधिक बाईस सागर आयुबन्धका ही विधान करते, क्योंकि द्रव्यस्त्री छठे नरकसे आगे नहीं जाती और छठे नरकमें उत्कृष्ट आयु बाईस सागर होती है। कदाचित् यह कहा जाय कि देवोंकी उत्कृष्ट आयुबन्धकी अपेक्षा इस सूत्रमें स्त्रीवेद शब्दका वाच्यार्थ द्रव्यस्त्रीवेद लिया जाय तो क्या हानि है ? परन्तु वीरसेन स्वामी यह कहना भी उचित नहीं मानते, क्योंकि देवों सम्बन्धी उत्कृष्ट आयुका बन्ध निर्ग्रन्थ भावनिग्रन्थ) के ही होता है और द्रव्यस्त्री निर्ग्रन्थ हो नहीं सकती, क्योंकि द्रव्यस्त्री और (द्रव्यनपंसक) वस्त्रादिका त्याग किये बिना भावनिर्ग्रन्थ नहीं हो सकते ऐसा छेदसत्रका वचन है।
यह तो हम पहले ही बतला आये है कि आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलिने महाकर्मप्रकृतिके कृति आदि २४ अनुयोग द्वारोंमेंसे प्रारम्भके छह अनुयोगद्वारों पर ही सूत्र रचना की है, निबन्धन आदि अन्तके अठारह अनुयोगद्वारों पर नहीं। वीरसेन स्वामीके समक्ष यह स्थिति थी ही, इसलिए उन्होंने स्वयं पिछली सूत्र रचनाको देशामर्षक मानकर निबन्धन आदि शेष अठारह अनुयोगद्वारोंकी रचना की है। इसका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है
७. निबन्धन-जो द्रव्य जिसमें निबद्ध है उसकी निबन्धन संज्ञा है। वह अनेक प्रकारका है। प्रकृतिमें अध्यात्मविद्याकी प्ररूपणा होनेसे कर्मनिबन्धका ग्रहण किया गया है । कर्मनिबन्धनके मूल और उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे अनेक भेद हैं । उनमेंसे जिस प्रकृतिका निमित्त कथनकी अपेक्षा जिस कार्यके लिए व्यापार होता है उसमें वह निबद्ध है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उदाहरणार्थ ज्ञानावरण कम सब द्रव्यों और असर्व पर्यायोंमें निबद्ध है । तात्पर्य यह है कि केवलज्ञान सब द्रव्योंको विषय करता है, इसलिए उसका विरोधी होनेसे केवलज्ञानावरणको सब द्रव्योंमें निबद्ध कहा है, तथा शेष ज्ञान कुछ पर्यायोंको विषय करते हैं, इसलिए शेष ज्ञानावरणोंको असर्वपर्यायोंमें निबद्ध कहा है। शेष कर्मोके विषयमें जान लेना चाहिए।
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