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३२२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
समग्र कषायप्राभृत जिन पन्द्रह अर्थाधिकारोंमें विभक्त है उनका नामनिर्देश आचार्य गुणधरने गाथा १३-१४में स्वयं किया है । वे अर्थाधिकार ये है-१. पेञ्जदोषविभक्ति, २. स्थितिविभक्ति, ३. अनुभागविभक्ति, ४. बन्ध (अकर्मबन्ध) अथवा प्रदेशविभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिक, ५. संक्रमण (कर्मबन्ध अथवा बन्धक, ६. वेदक, ७. उपयोग, ८. चतुःस्थान, ९. व्यञ्जन , १०. दर्शनमोहोपशामना, ११. दर्शनमोहक्षपणा १२. संयमासंयमलब्धि, १३. चारित्रलब्धि, १४. चारित्रमोहोपशामना और १५. चारित्रमोहक्षपणा । इनके सिवा अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली ६ गाथाएँ (१५ से २०) इसमें उपलब्ध होती है। पर यह स्वतन्त्र अधिकार न होनेसे इसका अलगसे निर्देश नहीं किया।
ये कषायप्राभूतकी मूल गाथाओंमें वर्णित विषयसम्बन्धी अधिकारोंके नाम हैं। इससे जिस अधिकारमें जिस विषयका वर्णन है उसकी सूचना मिल जाती है। इसकी मल गाथाओंमें कहीं प्रश्नरूपमें अ रूपमें सूचनामात्र की गई है। सूत्रका लक्षण है-'जिसमें अल्प अक्षर हों, जो असंदिग्ध हो, जिसमें प्रतिपाद्य विषयका सार भर दिया गया हो; जिसका विषय गूढ़ हो, जो निर्दोष सयुक्तिक और तथ्यभूत हो उसे सूत्र कहते हैं। सूत्रके इस लक्षणके अनुसार कषायप्राभूतकी सब गाथाएँ सूत्ररूप है इसमें सन्देह नहीं। आचार्य यतिवृषभ
और आचार्य वीरसेनने तो इन्हें सूत्राथारूपसे स्वीकार किया ही है । स्वयं आचार्य गुणधर 'वोच्छामि सुत्तगाहा (गाथा २) इस पदद्वारा उक्त तथ्यको स्वीकार करते हैं। चूर्णिसूत्र
आचार्य वीरसेनने जयधवलाके प्रारम्भमें मंगलाचरण करते हए जो आठ गाथाएं निबद्ध की हैं उनमें तीन गाथाएँ कषायप्राभृतके कर्ता गुणधर आचार्यका, कषायप्राभृतका सम्यक् प्रकारसे अवधारण करनेवाले आचार्य आर्यमंक्षु और नागहस्तिका तथा आर्य आर्य मंक्षु के शिष्य और नागहस्तिके अन्तेवासी कषायप्राभृत वृत्तिसूत्रोंके रचयिता आचार्य यतिवृषभका स्मरण करती है।
___ यह जयधवलाका उल्लेख है। इससे ये चारों आचार्य थोड़े बहुत कालके अन्तरसे आगे पीछे हुए जान पड़ते है । मालूम पड़ता है कि जिसप्रकार आचार्य यतिवृषभको आचार्य आर्यमंक्षुका शिष्य और आर्य नागहस्तिका अन्तवासी होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ उसी प्रकार इन दोनों आचार्योंको भी आचार्य गुणधरके सांनिध्यका लाभ मिला । किन्तु सर्व प्रथम कषायप्राभृतपर वृत्तिसूत्र या चूर्णिसूत्रके रूपमें विस्तृत विवेचन आचार्य यतिवृषभने ही लिखा, आर्य आर्यमंक्ष और नागहस्तिने नहीं। उन्होंने तो मात्र कषायप्राभूतके अर्थको सम्यक् प्रकारसे अवधारण कर इसका पाठ आचार्य यतिवृषभको दिया और उन्होंने उसपर वृत्तिसूत्रोंकी रचना की। आचार्य वीरसेन जहाँ उन्हें वृत्तिसूत्र इस नामसे सम्बोधित करते हैं वहाँ वे उनका चणिसूत्र यह नामकरण भी करते है। मालूम पड़ता है कि पूर्वकालमें ये दोनों नाम एक ही अर्थमें प्रयुक्त होते रहे हैं।
जैसा कि हम पूर्वमें संकेत कर आये है कषायप्राभूतकी मूल गाथायें प्रकृत विषयका संकेतमात्र करती हैं। उनमें वर्णित विषयका सर्वप्रथम संक्षिप्त होते हुए भी विशद और अर्थपूर्ण विवेचन करनेवाली यदि कोई रचना है तो ये चूणिसूत्र ही। चूर्णिसूत्रोंकी रचनाकी यह विशेषता है कि जिस विषयपर स्पष्ट और विशद विवेचन करना आवश्यक हुआ वहाँ पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है और गाथाओंमें वर्णित जिस विषय पर विशेष विवेचन कर ना आवश्यक प्रतीत नहीं हुआ उन्हें विवेचनके बिना वैसा ही रहने दिया है। उदाहरणार्थ कषायप्राभूतमें १५ से २० तककी गाथाओं द्वारा अना कार उपयोगसे लेकर उपशामक तकके कतिपय पदोंका अल्पबहुत्व बतलाया गया है । यतः यह विषय सुगम है, इसलिए इन गाथाओं पर आचार्य यतिवृषभने चूर्णिसूत्रोंकी रचना नहीं की। यह बात २ से १२ तककी गाथाओं पर भी लागू होती है, क्योंकि इन गाथाओं द्वारा मात्र
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