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चतुर्थ खण्ड : ३२१ अनुयोगद्वारमें आयुके अन्तर्मुहर्त शेष रहनेपर सर्व प्रथम यह जीव आवजित करण करता है। उसके बाद दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करते हुए जिस समुद्धातमें तथा उसके बाद जो जो क्रिया करता है उसका विवेचन किया गया है ।
२४. अल्पबहुत्व-इसमें सत्कर्म के आश्रयसे किस प्रकृतिके सत्कर्मका कौन स्वामी है यह विवेचन कर तथा एक जीवकी अपेक्षा काल आदिको जाननेका संकेत कर अल्पबहुत्वका निर्देश किया गया है।
इस प्रकार पूर्वोक्त परिचयसे ज्ञात होता है कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके जो २४ अनुयोगद्वार हैं उनमेंसे कृति और वेदनाको वेदनाखण्डमें, स्पर्श, कर्म, प्रकृति तथा बन्धनके बन्ध, बन्धक और बन्धनीयको वर्गणाखण्डमें तथा बन्धनके बन्धविधानको महाबन्धमें आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलिने सूत्र रूपसे निबद्ध किया है । तथा निबन्धन आदि शेष अठारह अनुयोगद्वारोंका आचार्य वीरसेनने धवला टीकाके अन्त में स्वयं विवेचन करते हुए उसे सत्कर्म संज्ञा दी है । जिसकी पुष्टि 'बोच्छामि संतकम्मे पंजियरूवेण विवरणं सुमहत्थं ।' इस वचनसे होती है। (देखो धवला पु० १५ संतकम्मपंजिया ।) सत्कर्मपञ्जिकाविवरण
धवला पुस्तक १५के अन्तमें मुद्रित होकर एक 'सत्कर्मपञ्जिका' जुड़ी हुई है। यह निबन्धन, प्रक्रम और उपक्रम इन तीन अनुयोगद्वारोंपर लिखी गयी धवला टोकाके कुछ विशेष पदोंका स्पष्टीकरणमात्र है। जिसने इसे निबद्ध किया है उसने अपने नामका कहीं भी उल्लेख नहीं किया। इतना अवश्य है कि जिन विशेष पदोंपर इसमें विवरण प्रस्तुत किया गया है वह महत्त्वपूर्ण और उपयोगी है। कषायप्राभृत
पहले हम यह बतला आये है कि इस पञ्चम कालमें अंग-पूर्व श्र तकी परम्परा अविच्छिन्न न रह सकी। धीरे-धीरे उसका विच्छेद होता गया । इसे समग्र जैन परम्पराका महान् भाग्य ही समझना चाहिए कि जिस प्रकार आग्रायणीय पूर्वकी चयनलब्धि नामक वस्तुका चतुर्थ प्राभृत कर्मप्रकृति किसी प्रकार सुरक्षित रह गया उसी प्रकार ज्ञानप्रवादपूर्वके दसवें वस्तु अधिकारके अन्तर्गत तीसरा पेञ्जदोसप्राभूत भी सुरक्षित रहा आया । आचार्य गुणधरने वर्तमानमें उपलब्ध जिस कषायप्राभृतकी रचना की है उसका मूल आधार यहीं पेज्जदोषप्राभृत है । दिगम्बर जैन परम्परामें इस समय अन्य जितना मूल श्रुत उपलब्ध होता है उसका भी मूल आधार अन्य-अन्य अंग-पूर्व श्रुत ही है यह इससे स्पष्ट विदित होता है ।
जैसा कि कषायप्रभृत इस नाम से ही सुस्पष्ट विदित होता है इस महान् ग्रन्थमें एकमात्र मोहनीयकर्मको माध्यम बनाकर ही विवेचन किया गया है । इसका दूसरा नाम पेञ्जदोषप्राभृत भी है सो इससे भी यही विदित होता है कि इसमें एकमात्र राग-द्वेष अर्थात् मोहनीयकर्मके आश्रयसे ही विवेचन किया गया है। ग्रन्थकी मूल गाथाएँ १८० हैं यह बात 'गाहासदे असीदे' (पु. १ पृ० १५१) इत्यादि दूसरी गाथासे विदित होती है । परन्तु इसमें मूल गाथाएँ २३३ उपलब्ध होती हैं । इसलिए यह प्रश्न होता है कि एक ओर कषायप्राभृतकी मूल गाथाएँ १८० बतलाई गई है और दूसरी ओर उसमें २३३ गाथाएं उपलब्ध होती है सो इसका क्या कारण है ? यह प्रश्न आचार्य वीरसेनके सामने भी था । उन्होंने इसका समाधान करते हुए (पु. १ पृ. १८२) जो कुछ लिखा है उसका आशय यह है कि पन्द्रह अर्थाधिकारोंमेंसे इस अर्थाधिकारमें इतनी गाथाएं निबद्ध है इस प्रकारका ज्ञान करानेके लिए गुणधर भट्टारकने 'गाहासदे असीदे' इस प्रकारकी प्रतिज्ञा की है। शेष ५३ गाथाओंका समावेश इन अर्थाधिकारोंमें नहीं होता, इसलिए उनका उल्लेख स्वयं आचार्य गुणधरने नहीं किया।
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