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चतुर्थ खण्ड : ३०७ महान् आचार्य थे यह इनके कषायप्राभृत पर लिखे गये वृत्तिसूत्रों (चूर्णिसूत्रों से ही ज्ञात होता है । वर्तमान में उपलब्ध त्रिलोकप्रज्ञप्ति इनकी अविकल रचना है यह कहना तो कठिन है । इतना आवश्यक है कि इसके fear त्रिलोकप्रज्ञप्ति और होनी चाहिये । सम्भव है उसकी रचना इन्होंने की है ।
यह तो हम पहले ही लिख आये हैं कि सम्यक् श्रुतके अर्थकर्ता तीर्थंकर केवली होते हैं और ग्रन्थकर्ता गणधरदेव होते हैं । इस तथ्यको ध्यान में रख कर आनुपूर्वी क्रमसे विचार करने पर विदित होता है कि सिद्धान्तग्रन्थों और तदनुवर्ती श्रुतके सिवा अन्य जो भी श्रत वर्तमानकालमें उपलब्ध होता है उसके रचयिता आचार्योंने परिपाटी क्रमसे प्राप्त हुए श्रुतके आधारसे ही उसकी रचना की है। इसलिये यहाँ पर कुछ प्रमुख श्रुतधर आचार्यों का नाम निर्देश कर देना भी इष्ट है जिन्होंने अन्य अनुयोगोंकी रचना कर सर्वप्रथम श्रुतके भंडारको भरा है | द्रव्यानुयोगको सर्वप्रथम पुस्तकारूड़ करनेवाले प्रमुख आचार्यं भगवान् कुन्दकुन्द हैं । इनकी और इनके द्वारा रचित श्रुतकी महिमा इसीसे जानी जा सकती है कि भगवान् महावीर और गौतम गणवर के बाद इनको स्मरण किया जाता है । उत्तरकालमें आचार्य गृद्धपिच्छ, बट्टकेर, शिवकोटि समन्तभद्र, पूज्यपाद, भट्टाकलंकदेव, विद्यानन्द और योगीन्द्रदेव प्रभृति सभी आचार्योंने तथा राजमलजी, बनारसीदासजी आदि विद्वानोंने इनका अनुसरण किया है । आचार्य अमृतचन्द्रके विषय में तो इतना ही लिखना पर्याप्त है कि मानो इन्होंने भगवान् कुन्दकुन्दके पादमूलमें बैठकर ही समयसार आदि श्रुतकी टीकायें लिखी हैं ।
चरणानुयोगको पुस्तकारूढ़ करनेवाले प्रथम आचार्य वट्टकेरस्वामी हैं । इनके द्वारा निबद्ध मूलाचार इतना सांगोपांग है कि आचार्य वीरसेन इसका आचारांग नाम द्वारा उल्लेख करते हैं । उत्तरकालमें जिन आचार्यों और विद्वानोंने मुनि आचार पर जो भी श्रुत निबद्ध किया है उसका मूल श्रोत मूलाचार ही है । आचार्य वसुनन्दिने इस पर एक टीका लिखी है। भट्टारक सकलकीर्तिने भी मूलाचारप्रदीप नामक एक ग्रन्थकी रचना की है । उसका मूल स्रोत भी मूलाचार ही है । इसी प्रकार चार आराधनाओंको लक्ष्य कर आचार्य शिवकोटिने आराधनासार नामक श्रुतकी रचना की है। श्रुतके क्षेत्रमें मूल श्रुतके समान इसकी भी प्रतिष्ठा है । श्रावकाचारका प्रतिपादन करनेवाला प्रथम श्रुतग्रन्थ रत्नकरण्ड श्रावकाचार है । यह आचार्य समन्तभद्रकी कृति है, जिसका मूल आधार उपासकाध्ययनांग है । इसके बाद अनेक अन्य आचार्यों और विद्वानोंने गृहस्थधर्म के ऊपर अनेक ग्रन्थोंकी रचनायें की हैं ।
प्रथमानुयोगमें महापुराण, पद्म पुराण और हरिवंशपुराण प्रसिद्ध हैं। इनकी रचना भी यथासम्भव परिपाटी क्रमसे आये हुए अंग-पूर्व श्रुतके आधारसे की गई है । जिन आचार्यों ने इस श्रुतको सम्यक् प्रकारसे अवधारण कर निबद्ध किया है उनमें आचार्य जिनसेन ( महापुराणके कर्ता) आचार्य रविषेण और आचार्य जिनसेन ( हरिवंशपुराण के कर्ता) मुख्य हैं ।
इस तरह चारों अनुयोगोंमें विभक्त समग्र मूल श्रुतकी रचना आनुपूर्वीसे प्राप्त अंगपूर्वश्रुत के आधारसे ही इन श्रुतधर आचार्योंने की है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। जैन परम्परामें पूर्व - पूर्व श्रुतकी अपेक्षा ही उत्तरउत्तर श्रुतको प्रमाण माना गया है सो सर्वत्र इस तथ्यको ध्यानमें रखकर श्रुतकी प्रमाणता स्वीकार करनी चाहिए ।
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