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३०६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ उच्चारण किया । साथ ही उन्होंने 'मुझे सम्यक् श्रुतको धारण और ग्रहण करनेमें समर्थ ऐसे दो शिष्योंका लाभ होनेवाला है' यह जान लिया।
जिस दिन आचार्य धरसेनने यह स्वप्न देखा था उसी दिन वे दोनों साधु आचार्य धरसेनको प्राप्त हुए। पादवन्दना आदि कृतिकर्मसे निवृत्त हो और दो दिन विश्राम कर तीसरे दिन वे दोनों साधु पुनः आचार्य धरसेनके पादमूलमें उपस्थित हुए। इष्ट कार्यके विषयमें जिज्ञासा प्रगट करने पर आचार्य धरसेनने आशीर्वादपूर्वक दोनोंको सिद्ध करनेके लिए एकको अधिक अक्षरवाली और दूसरेको हीन अक्षरवाली दो विद्यायें दी और कहा कि इन्हें षष्ठभक्त उपवासको धारण कर सिद्ध करो। विद्यायें सिद्ध होने पर उन दोनों साधुओंने देखा कि एक विद्याकी अधिष्ठात्री देवीके दाँत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी विद्याकी अधिष्ठात्री देवी कानी है । यह देखकर उन्होंने मन्त्रोंको शुद्ध कर पुन: दोनों विद्याओंको सिद्ध किया। इससे वे दोनों विद्यादेवतायें अपने स्वभाव और अपने सुन्दररूपमें दृष्टिगोचर हई। तदनन्तर उन दोनों साधुओंने विद्यासिद्धिका सब वृत्तान्त आचार्य धरसेनके समक्ष निवेदन किया। इससे उन दोनों साधुओं पर अत्यन्त प्रसन्न हो उन्होंने योग्य तिथि आदिका विचार कर उन्हें ग्रन्थ पढ़ाना प्रारम्भ किया । आषाढ़ शुक्ला ११के दिन पूर्वाह्नकालमें ग्रन्थ समाप्त हुआ।
जब इन दोनों साधुओंने विनयपूर्वक ग्रन्थ समाप्त किया तब भूतजातिके व्यन्तर देवोंने उनकी पूजा की । यह देख आचार्य धरसेनने एकका नाम पुष्पदन्त और दूसरेका नाम भूतबलि रखा।
बादमें वे दोनों साधु गुरुकी आज्ञासे वहाँसे रवाना होकर अंकलेश्वर आये । और वहाँ वर्षाकाल तक रहे । वर्षायोग समाप्त होने पर पुष्पदन्त आचार्य बनवास देशको चले गये और भूतबलि भट्टारक द्रमिल देशको गये।
बादमें पृष्पदन्त आचार्य जिनपालितको दीक्षा देकर तथा वीसदि सूत्रोंकी रचना कर और जिनपालितको पढ़ाकर भूतबलि आचार्य के पास भेज दिया। भूतबलि आचार्यने जिनपालितके पास वीसदि सूत्रोंको देखकर और पुष्ददन्त आचार्य अल्पायु हैं ऐसा जिनपालितसे जानकर महाकर्मप्रकृतिप्राभूतका विच्छेद होनेके भयसे द्रव्यप्रमाणानुगमसे लेकर शेष ग्रन्थकी रचना की।
यह आचार्य धरसेन प्रभृति तीन प्रमुख आचार्योका संक्षिप्त परिचय है। इस समय जैन परम्परामें पुस्तकारूढ़ जो भी श्रुत उपलब्ध है उसमें षट्खण्डागम और कषायप्राभतकी रचना प्रथम है। षट्खंडागमके मूल श्रोतके व्याख्याता हैं आचार्य धरसेन तथा रचयिता हैं आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि । आचार्य गुणधर-यतिवृषभ
जैन परम्परामें षटखण्डागमका जो स्थान है वही स्थान कषायप्राभूतका भी है। इन आगमग्रन्थोंका मूल स्रोत क्या है यह तो श्रुत परिचयके समय बतलावेंगे । यहाँ तो मात्र कषायप्राभूतके रचयिता आचार्य गुणधर और उसपर वृत्तिसूत्रोंकी रचना करनेवाले आचार्य यतिवृषभके बारेमें लिखना है। कषायप्राभृतकी प्रथम गाथासे सुस्पष्ट विदित होता है कि आचार्य धरसेनके समान आचार्य गुणधर भी अंग-पूर्वोके एकदेशके ज्ञाता थे। उन्होंने कषायप्राभूतको रचना पाँचवें पूर्वकी दशवीं वस्तुके तीसरे प्राभूतके आधारसे की है। इससे विदित होता है कि जिस समय पाँचवें पूर्वकी अविछिन्न परम्परा चल रही थी तब आचार्य गुणधर इस पृथिवीतलको अपने वास्तव्यसे सुशोभित कर रहे थे। ये अपने कालके श्रुतधर आचार्यों में प्रमुख थे ।
आचार्य यतिवृषभ उनके बाद आचार्य नागहस्तीके कालमें हुए हैं, क्योंकि आचार्य वीरसेरने इन्हें आचार्य आर्यमंक्षुका शिष्य और आचार्य नागहस्तीका अन्तेवासी लिखा है। ये प्रतिभाशाली
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