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सम्यकत-परिचय
इस समय इस भरतक्षेत्रमें केवली, श्रुतकेवली और अभिन्न दशपूवियोंका तो सर्वथा अभाव है ही। उत्तर कालमें विशिष्ट श्रुतधर जो ज्ञानी आचार्य हो गये हैं उनका भी अभाव है। फिर भी उन आचार्यों द्वारा लिपिबद्ध किया गया जो भी आगम साहित्य हमें विरासतमें मिला है उसका पूरी तरहसे मूल्यांकन करना हम अल्पज्ञोंकी शक्ति के बाहर है।। .. पूर्व कालमें अरिहन्त परमेष्ठीकी वाणीके रूपमें जिस श्रुतका गणधरदेवने संकलन किया था वह अंगबाह्य और अंगप्रविष्ठके भेदसे दो भागोंमें विभक्त किया गया था। अंगबाह्य श्रुत मुख्यरूपसे चौदह प्रकारका है-सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका । तथा अंगप्रविष्ठ श्रुत बारह प्रकारका है-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तःकृद्दशा, अनुत्तरोपपादिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद । इनमेंसे दृष्टिवाद श्रुतके पाँच अर्थाधिकार है-परिकर्म, सत्र, प्रथमानयोग, पूर्वगत और चलिका । परिकर्म पाँच प्रकारका है-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति । पूर्वगतके चौदह अर्थाधिकार हैंउत्पादपूर्व, आग्रायणीय, वीर्यानुप्रवाद, अस्ति-नास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुवाद, कल्याणनामधेय, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार । तथा चूलिका पाँच प्रकारकी है-जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता और आकाशगता।
यह मूल श्रत है। किन्तु कालदोषवश उत्तरोत्तर उसका ह्रास होने पर आजसे लगभग साधिक दो हजार वर्ष पूर्व अन्तमें धरसेन आचार्य हुए। उन्हें अंग-पूर्बसम्बन्धी अवशिष्ट जो भी ज्ञान प्राप्त था, उसका उन्होंने पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यको अध्ययन कराया । परिणामस्वरूप इन दोनों आचार्योने मिलकर षट्खण्डागम श्रुतको निबद्ध कर पुस्तकारूढ़ किया । षट्खण्डागम
इन दोनों आचार्योने षट्खण्डागम श्रुतकी रचना किस आधारसे की इसका विशेष ऊहापोह आचार्य वीरसेनने धवला टीकामें किया है। यहाँ संक्षेपमें इतना लिखना पर्याप्त है कि आग्रायणीय पूर्वको २० वस्तुओंमेंसे ५वीं वस्तु चयनलब्धिके २० प्राभूतोंमेंसे चौथा प्राभूत महाकर्मप्रकृति है। मुख्यतया उसीसे षट्खण्डागमकी उत्पत्ति हुई है। इतना अवश्य है कि इसके कति आदिक ३४ अधिकार हैं उनमेंसे प्रारम्भके ६ अधिकारोंसे ही इन खण्डोंकी उत्पत्ति हुई है । मात्र जीवस्थानकी सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिकाका मूल आधार दृष्टिवादका दूसरा भेद सूत्र है और गति-अगति चूलिकाका मूल आधार व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग है।
यह समस्त षट्खण्डागमकी रचनाका मूल स्रोत है। इससे विदित होता है कि षट्खण्डागमके रूपमें इस समय जो भी श्रुत उपलब्ध है वह मात्र आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिकी स्वनिर्मित कृति न होकर अंग-पूर्व श्रुतका ही अवशिष्ट भाग है । इसलिए आगममें इसकी मूल अंग-पूर्व साहित्यके समान ही प्रामाणिकता स्वीकार की गई है । वर्तमान कालमें यह हमारा महान् भाग्य है कि शेष बचे अंग-पूर्व श्रुतके विच्छेदके भय और प्रवचनवत्सलताके कारण आचार्यवर्य धरसेनके मनमें जो अवशिष्ट अंग-पूर्वश्रुतकी सुरक्षाका भाव उदित हुआ था उसीके परिणामस्वरूप इस समय अंग-पूर्वश्रुतके उस अवशिष्ट अंशके दर्शन, श्रवण और मनन करनेका सौभाग्य
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