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२९६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
और नोकर्मका तद्व्ययतिरिक्त नोआगम द्रव्य निक्षेपमें ही अन्तर्भाव होता है और द्रव्य निक्षेप मुख्यतया द्रव्याथिकनयका विषय है। यह उस निक्षेपार्थपर दृष्टि डालनेसे ही स्पष्ट हो जाता है । अतएव बाह्य वस्तुकी अपेक्षा यह कहना कि कषाय कर्मके उदयसे आत्मामें कषायभाव होता है या कर्म आत्माको स्वर्ग ले जाता है, नर्क ले जाता है आदि, कर्म बड़ा बलवान है आदि, वह सब नैगमनयका विषय होनेसे विकल्प ही है और वह उपचरित अर्थको विषय करनेवाला होने मे उपचार ही है ।
'आलापपद्धति' में छहों द्रव्योंके जिन स्वभावोंका निर्देश किया गया है, उनमें एक उपचरित स्वभाव भी है । उपचरित स्वभावका अर्थ ही यह है कि जो स्वयं द्रव्यका स्वरूप तो है नहीं, किन्तु प्रयोजन विशेषसे उस पर आरोपित कर उसका कहा जाय वह उपचरित स्वभाव कहलाता है। और इस स्वभावको स्वीकार करने वाले नयको उपचारनय या नैगमनय कहते हैं। आचार्य सिद्धसेनने अपने 'सन्मति तर्क' में नैगमनयको स्वीकार नहीं किया है, उसका कारण भी यही है ।
जयधवला (भाग १ पृ० २७०-२७१) में यह प्रश्न उठाया गया है कि सत्व, प्रमेयत्व, पुद्गलत्व, निश्चेतनत्व और मिट्टी स्वभावरूपसे मिट्टीके पिण्ड में घट भले ही स्वीकार किया जाय, परन्तु दण्डादिकमें घट नहीं पाया जाता। क्योंकि दण्डादिकमें तद्भावलक्षण सामान्यका अभाव है। तब इस प्रश्नका उत्तर देते हए वहाँ बतलाया है कि दण्डादिकमें भी प्रमेयत्व आदि रूपसे घटका अस्तित्व स्वीकार किया गया है । सो इस शंका-समाधानसे भी यही ज्ञात होता है कि दण्डादिकको जो घटका कारण कहा जाता है, वह कालप्रत्यासत्तिवश (एक कालमें दोनोंका संगम) बाह्य व्यप्तिको देखकर ही कहा जाता है, अतएव दण्डादिकसे घटकी उत्पत्ति हाती है, इस कथनको उपचरित हो जानना चाहिए । इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि असद्भुत व्यवहारनयका जितना भी विषय है, उसका परिग्रह संकल्पप्रधान नैगमनय के विषयके अन्तर्गत ही होता है।
इसके अतिरिक्त जो सद्भुत व्यवहारनय और उसका विषय है, सो उसके विषयमें भी इसी न्यायसे विचार कर लेना चाहिए । यद्यपि कार्यकारण-परम्पराके अन्तर्गत उपादान कारणको भी यथार्थ माना गया है
और उपादेय कार्यको भी यथार्थ माना गया है। क्योंकि आगममें अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती पर्याययुक्त द्रव्यको कारण और अव्यवहित उत्तर क्षणवर्ती पर्याययुक्त द्रव्यको कार्य कहा गया है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उपादान कारण भी वास्तविक है और उपादेयरूप कार्य भी वास्तविक है। ऐसा होते हुए भी इन दोनोंमें काल-भेद होनेके कारण जिस समय उपादान कारण है, उस समय उपादेयरूप कार्य नहीं और जिस समय उपादेयरूप कार्य है उस समय उसका उपादान कारण नहीं है। अतः उपादान कारणसे उपादेय कार्य उत्पन्न होता है यह कहना भी व्यवहार-उपचार है। वस्तुतः स्वरूपकी अपेक्षा विचार करने पर विदित होता है कि उपादान कारण स्वरूपसे स्वयं है और उपादेयरूप कार्यभी स्वरूपसे स्वयं है। क्योंकि धर्म या धर्मीका सिद्धि परसापेक्ष भले ही हो, वे स्वरूपकी अपेक्षा परसापेक्ष नहीं हुआ करते, ऐसी वस्तु-व्यवस्था है । उत्पाद-व्यय-क्रिया परनिपेक्ष ही है
इस प्रकार पूर्वोक्त विवेचनसे यह भले प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक द्रव्यमें जो उत्पाद और व्ययरूप क्रिया होती है, वह स्वयं ही हुआ करती है। चाहे परिणाम लक्षण क्रिया हो और चाहे प्रदेश परिस्पन्दनरूप क्रिया हो या देशान्तरगति हो; होती है वह स्वयं ही। किसी अन्यकी सहायतासे यह क्रिया होती हो, ऐसी वस्तु-व्यवस्था नहीं है । इतना अवश्य है कि उसकी सिद्धि परसापेक्ष होने से उसमें परकी सहायताका व्यवहार किया जाता है । एकको साधन और दूसरेको साध्य या एकको उपकारक और दूसरेको उपकार्य कहा जाता है । यह सब असद्भूत व्यवहार ही है।
"जैनतत्त्वमीमांसाकी मीमांसा" में "जैन तत्त्वमीमांसा'' के कतिपय वचनोंको उद्धृत कर (पृ० २२२ आदि) उक्त तथ्यके विषयमें बहुत कुछ लिखा गया है। उसमें विवक्षित अभिप्रायको व्यक्त करने वाली मूल बात
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