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चतुर्थ खण्ड : २९५
यहाँ जिस प्रकार उत्पादको निर्हेतूक सिद्ध किया गया है, उसी प्रकार व्ययको भी निर्हेतुक ही जानना चाहिए । इसका स्पष्टीकरण करते हए वहीं (प० २०:-२०७) पर यह बतलाया है कि ऋजसत्रनयकी अपेक्षा विनाश भी निर्हेतुक होता है। यथा-यहाँ विनाशसे प्रसज्यरूप (सर्वथा अभाव) अभाव लिया गया है या पयुदासरूप (एक वस्तुके अभावमें दूसरी वस्तुका सद्भाव) । प्रसज्य रूप अभाव तो परसे उत्पन्न होता नहीं, क्योंकि कारकके प्रतिषेधमें व्यापार करने वाले परसे घटका अभाव मानने में विरोध आता है। पर्युदास अभाव रूप भी विनाश नहीं बनता, क्योंकि वह घटसे भिन्न उत्पन्न होता है या अभिन्न भिन्न उत्पन्न होना तो बनता नहीं, क्योंकि पयुदासरूप अभावसे भिन्न घटकी उत्पत्ति मानने पर विवक्षित घटका विनाश मानने में विरोध आता है । घट कार्यसे अभिन्न उत्पन्न होता है, यह कहना भी नहीं बनता। क्योंकि उत्पन्नकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । इसलिए ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा विनाश भी निर्हेतुक होता है यह सिद्ध हुआ। अन्य नयोंकी दृष्टिमें
इस प्रकार जबकि ऋजसत्र दोके सम्बन्धको स्वीकार ही नहीं करता। उसकी अपेक्षा बन्ध्य-बन्धकभाव, बध्य-घातकभाव, दाह्य-दाहकभाव, विशेषण-विशेष्यभाव, ग्राह्य-ग्राहकभाव और वाच्य-वाचकभाव आदि कुछ नहीं बनते, तो कार्य-कारणभाव कैसे बन सकता है ? अर्थात् नहीं बन सकता।
___ अब रह गए नैगम, संग्रह और व्यवहारनय । सो इन नयोंमेंसे संग्रहनय तो किसी एक धर्मकी मुख्यतासे अशेष पदार्थोंका संग्रह करता है। सत् सामान्यकी अपेक्षा संग्रह करना इष्ट हुआ, तो वह सदूपसे स्वीकार करेगा। द्रवणगुणकी अपेक्षा संग्रह करना इष्ट हुआ, तो सबको द्रव्य रूपसे स्वीकार करेगा। इसी प्रकार कारणत्वको अपेक्षा संग्रह करना इष्ट हुआ, तो वह सबको कारण रूपसे स्वीकार करेगा और कार्यत्व सामान्यकी अपेक्षा संग्रह करना इष्ट हुआ, तो सबको कार्य रूपसे स्वीकार करेगा । कौन किसका कारण है
और कौन किसका कार्य है, यह इस नयका विषय नहीं है। तथा व्यवहारनय संग्रहनयसे गृहीत विषयमें यथाविधि भेद करेगा । कौन किसका कारण है और कौन किसका कार्य है यह इस नयका भी विषय नहीं है । तात्पर्य यह है कि अनेक वस्तुओंमें किसी एक धर्मका सर्वत्र अन्वय देखकर अभेदकी मुख्यतासे संग्रह नयकी प्रवृत्ति होती है। इसी अभिप्रायसे संग्रहनयको शुद्ध द्रव्याथिक कहा गया है और उस धर्मकी अपेक्षा अनेक वस्तुओंमें भेद करके भेद द्वारा उन्हें ग्रहण करने वाला व्यवहार नय स्वीकार किया गया है । इसलिए इसे पर्याय कलंकसे अंकित अशुद्ध द्रव्याथिक कहा गया है।
इन दो के अतिरिक्त द्रव्याथिक रूप एक नैगमनय है। इसका व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है 'जो है वह दोको उलंघन कर नहीं रहता' अर्थात जो 'नैकंगमः' केवल एकको प्राप्त न हो, उसे नैगम कहते हैं। यह संकल्प प्रधान नय है। यह अनिष्पन्न भावी पदार्थको निष्पन्नवत् कहता है। अतीतको वर्तमानवत् कहता है तथा जो निष्पन्न हो रहा है, उसे भी निष्पन्नवत् कहता है। पृथक् कालवर्ती दोमें या पृथक् सत्ताके दो सम्बन्ध कल्पित करना यह भी इसका विषय है (यह सब वस्तुके आलम्बनसे किया जाता है) तथा इससे व्यवहारकी प्रसिद्धि होती है । इसलिए इसकी समीचीन नयोंमें परिगणनाकी जाती है । इस दृष्टिसे कारण-कार्यभाव नैगमनयका विषय ठहरता है। जयधवला (पु० १ पृ. २०१) में कारण-कार्यभाव आदि नैगमनयका विषय है और वह उपचार रूप है, ऐसा स्वीकार भी किया है। व्यवहारनयका विषय
श्री 'समयसार में अनेक स्थलोंपर व्यवहारनय और उपचारनय इन दोनोंको एकार्थक स्वीकार किया है। अमतचन्द्रदेव 'समयसार' (गाथा १०७) की आत्मख्याति टीकामें लिखते हैं-यह आत्मा व्याप्य-व्यापक भावके अभावमें भी प्राप्य, विकार्य और नित्य कर्मको करता है। इत्यादि रूप जो विकल्प होता है, वह नियमसे असद्भूत है । इसका कारण यह है कि परमागममें जो निक्षेपके चार भेद किए गए हैं, उनमेंसे कर्म
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