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२८६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
इन व ऐसे ही अन्य प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि स्वामी समन्तभद्रके ग्रन्थ आ० पूज्यपादके सामने रहे है तब भी उन्होंने उन ग्रन्थोंमेंसे कोई श्लोक उद्धृत नहीं किया है। ठीक यही अवस्था रत्नकरण्डश्रावकाचारकी रही है । यह ग्रन्थ पूज्यपाद स्वामीके समक्ष अवश्य था जिसके कुछ प्रमाण इस प्रकार हैंपूज्यपादने तात्त्वार्थसूत्र अध्याय सात सूत्र १ की व्याख्या लिखते हुए यह वाक्य लिखा है
'व्रतमभिसन्धिकतो नियमः। यह वाक्य रत्नकरण्डश्रावकाचारके इस श्लोकके आधारसे लिखा गया है
'अभिसन्धिकृता विरतिविषयायोग्याव्रतं भवति ।' पूज्यपादने तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ७ सूत्र २२ की व्याख्यामें जो अनर्थदण्डोंका स्वरूप लिखा है सो वह स्वरूप लिखते समय उनके सामने रत्नकरण्डश्रावकाचारके अध्याय ३ के ३० से लेकर ३४ तकके श्लोक रहे हैं।
इन प्रमाणोंके रहते हुए यह कहना निः सार है कि ९ वीं शताब्दिके पहलेके ग्रन्थोंमें रत्नकरण्डश्रावकाचारके उल्लेख नहीं पाये जाते, अतः इसके कर्ता समन्तभद्र स्वामी नहीं हैं।'
हमने जो प्रमाण दिये हैं उनसे स्पष्ट है कि इसके कर्ता समन्तभद्र स्वामी ही हैं। इतना ही नहीं किन्तु यह ग्रन्थ पूज्यपाद और उनके बाद हुए सिद्ध सेनके सामने रहा है । द्वितीय दलीलका उत्तर
• आप्तका पहला लक्षण कहते समय उसमें 'उच्छिन्नदोष' यह भी विशेषण है अतः अगले श्लोक द्वारा वे दोष गिना दिये गये हैं और उनसे जो रहित है वह आप्त है यह बतला दिया है । इस प्रकार यह दूसरा लक्षण पहले लक्षणका पूरक ही है। इस दूसरे श्लोक द्वारा कुछ आप्तका अन्य प्रकारसे लक्षण नहीं किया गया है। तीसरी दलीलका उत्तर
स्वामी समन्तभद्रने आप्तके स्वरूपका विचार करने के लिये 'आप्तमीमांसा' लिखी है। आप्तका मुख्य अर्थ है अरहन्त देव । इसलिये अरहन्तदेवकी स्तुतिमें अरहन्तके शरीर और आत्मा दोनोंकी स्तुति आ जाती है। रत्नकरण्डश्रावकाचारमें इन दोनों बातोंको ध्यानमें रखकर दोष गिनाये गये हैं और उन दोषोंसे रहित आप्तको बतलाया है। परन्तु आप्तमीमांसामें शरीरकी स्तुति को अरहंतकी स्तुति न मान कर शरीरातिशयों द्वारा यह कह कर कि ये शरीरातिशय' तो रागी देवोंमें भी देखे जाते हैं, आप्तताको अस्वीकार कर दिया है। पर इससे यह बात तो फलित हो ही जाती है कि समन्तभद्र स्वामी की यह दृष्टि रही है कि आप्तके शरीरमें विशिष्ट अतिशय होते हैं । 'भीतरी और बाहिरी ये शरीरादिकके अतिशय दिव्य हैं और सही हैं उनके इस कथनसे क्या इसकी पुष्टि नहीं हो जाती अर्थात् अवश्य हो जाती है। समन्तभद्र क्षुधादि दोषोंसे रहित आप्त को अवश्य मानते हैं यही इसका भाव है।
इस कथनसे स्पष्ट हो जाता है कि अन्यत्र जहाँ भी समन्तभद्र स्वामीने आप्तकी मीमांसाकी है वहाँ आप्तको क्षुधादि दोषोंसे रहित सर्व प्रथम स्वीकार कर लिया है और उसके बाद ही उन्होंने आप्तके आत्मिक गुणोंका विश्लेषण किया है। आप्तमीमांसाके १ से लेकर ६ श्लोक देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उन इलोकोंके व रत्नकरण्डश्रावकाचारमें वर्णित आप्तके स्वरूपके प्रतिपादक श्लोकोंके रचयिता एक ही व्यक्ति है । रत्नकरण्डश्रावकाचार आचार ग्रन्थ होनेसे उसमें वर्णनात्मक दृष्टि रही है और आप्तमीमांसा दर्शन ग्रन्थ होनेसे उसमें विश्लेषणात्मक दृष्टि रही है । १. देखो आप्तमीमांसा श्लोक २।
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