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२७६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
यहाँ यह शंका नहीं की जा सकती कि यदि तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध सम्यक्त्व निमित्तक होता है तो सभी सम्यग्दृष्टियोंके उसका बन्ध होना चाहिये और यदि आहारकद्विकका बन्ध संयमनिमित्तक होता है तो सभी संयमियोंके आहारकद्विकका बन्त्र होना चाहिये, क्योंकि ऐसी व्याप्ति तो है कि जो भी तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध करेगा उसको कमसे कम सम्यग्दृष्टि तो होना ही चाहिये । तथा जो भी आहारकद्विकका बन्ध करेगा उसे कमसे कम अप्रमत्तसंयत तो होना ही चाहिये । इन दोनोंके इन प्रकृतियों का बन्ध नियमसे होता ही है ऐसा नहीं है । होगा तो ऐसी योग्यताके होनेपर ही उनके बन्धके कारणोंसे होगा, अन्यथा नहीं होगा ।
आगमके इस कथनका तात्पर्य यह है कि अन्यत्र न होकर जिस भूमिकामें जिस कर्मका बन्ध होता है उसमें नयदृष्टिसे कारणता स्वीकार करना अनिवार्य है । यदि ऐसा न माना जाय तो जिसके भी तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध होगा उसे कमसे कम सम्यग्दृष्टि तो होना ही चाहिये यह कथन युक्तिसंगत नहीं माना जा सकेगा । एक कार्यके होनेमें कारण अनेक होते हैं, कोई साधारण कारण होता है और कोई असाधारण कारण होता है । यहाँ मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंके बन्धमें मिथ्यात्व असाधारण कारण है, क्योंकि जो भी उनका बन्ध करेगा उसका मिथ्यादृष्टि होना अनिवार्य है, उन प्रकृतियोंके बन्ध होनेमें अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप परिणामका होना अनिवार्य नहीं है ।
(८) उक्त १६ प्रकृतियोंका प्रदेशबन्धकी अपेक्षा विचार करनेपर भी इनका उत्कृष्टादिके भेदसे किसी भी प्रकारका प्रदेशबन्ध क्यों न हो उसका भी मिथ्यादृष्टि होना अनिवार्य है । मिथ्यादृष्टि न हो और केवल योग के निमित्तसे इन प्रकृतियोंका किसी भी प्रकारका प्रदेशबन्ध हो जाय ऐसा नहीं है ।
(९) यहाँ यह कहा जा सकता है कि मिथ्यादृष्टि तो हो, परन्तु उसके योग और कषाय न हो तो प्रकृतियों का केवल मिथ्यात्वके निमित्तसे बन्ध नहीं होगा । परन्तु जिसका ऐसा कहना है सो उसका वैसा कहना इसलिए युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि आगमके अनुसार यह तो कहा जा सकता है कि योग और कषाय तो हो, परन्तु मिथ्यात्व न हो । पर यह नहीं कहा जा सकता कि मिथ्यात्व तो हो और योग और कषाय न हो । हाँ कोई कहे कि मिथ्यात्व तो हो और अनन्तानुबन्धी न हो तो यह कहना जैसे बन जाता है । वैसे ही अनन्तानुबन्धी तो हो और मिथ्यात्व न हो, गुणस्थान भेदसे यह कहना भी बन जायगा । अतः आगमके अनुसार यही मानना युक्ति संगत प्रतीत होता है कि आगममें जो बन्धके पाँच कारण कहे गये हैं उनमें मिथ्यात्व मुख्य है ।
(१०) अब प्रश्न यह है कि जब मिथ्यात्व भी बन्धका कारण है तब ऋजुसूत्रनयसे स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका कारण मात्र कषायको तथा प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण मात्र योगको क्यों कहा । ऋजुसुत्रनयसे मिथ्यात्वका बन्धके कारणोंमें क्यों नहीं परिगणित किया गया ? समाधान यह है कि कषायकी वृद्धि और हानिके साथ तो स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धकी वृद्धि और हानि देखी जाती है, इसलिये तो ऋजुसूत्रनयसे कषायको स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका कारण कहा ' तथा योगकी वृद्धि और हानिके साथ प्रदेशबन्धकी वृद्धि और हानि होती है, इसलिये ऋजुसूत्र नयसे योगको प्रदेशबन्धका कारण कहा । यहाँ जिस
१. णाणावरणीयट्ठिदिवेयणा अणुभागवेयणा च कसायचच्चएण होदि, कसायवड्ढिहाणीहिता • ट्ठिदि-अणुभागाणं वड्ढि - हाणिदंसणादो । - ध० पू० १२ पृ० २८८ ।
२. ण च जोगवड्ढि -हाणीओ मोत्तूण अण्णेहितो णाणावरणीयपदेसंबंधस्स वढि हाणि वा पेच्छामो ।
- ध० पु० १२ पृ० २२८ ।
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