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२५० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
यदि फरक न माना जावे तो मुक्तिके लिये प्रयत्न करना ही निष्फल ठहर जावेगा। इसलिये अध्यात्मशास्त्रमें संयोगसे उत्पन्न होनेवाले धर्माको जिसके संयोगसे वे उत्पन्न होते हैं उसका कहा जाता है । ऐसा मानने अथवा श्रद्धान करनेपर तत्त्व हानि न होकर तत्त्व प्राप्ति ही होती है।
आगे चलकर पंडितजीने जो यह लिखा है कि मनका अभाव हो जानेपर भी आत्मा रहता है। (भावमन आत्मामें रहता है। उसका अभाव (अत्यन्ताभाव) नहीं होता है।
इस वाक्यो ऊपरसे तो सचमचमें मुझे ऐसा मालूम पड़ता है कि इस लेखके लेखक स्वयं पंडितजी नहीं है । हो सकता है कि इस प्रकार लिखने में मेरा अज्ञान कारण हो परन्तु मुझे जैसा समझमें आता है उस प्रकार लिख देना अनुचित भी नहीं है।
भावमनका अभाव हो जानेपर भी आत्मा रहता है इसका पं० जी ने जो कोसमें खुलासा किया है कि वह मन आत्मामें रहता है । इधर उसका अभाव बताते हैं दूसरी ओर उसका सद्भाव बताते है । मेरी समझसे ऐसा लिखनेके दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि भावमन विशिष्ट आत्मप्रदेश रूप है और दूसरा यह कि वह सामान्यज्ञान स्वरूप है । परन्तु ये दोनों कल्पनायें बराबर नहीं है इसका खंडन हमारे ऊपरके कथनसे हो जाता है । भावमन यह ज्ञान विशेष है । इसलिये उसका सद्भाव सर्वदा रहना ही चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है । क्रमभावी पर्याय होती है और सहभावी गुण होता है इस नियमके अनुसार भावमनको क्रमभावी समझना चाहिये, कारण वह ज्ञान गुणकी विशेष पर्याय है। सामान्यज्ञान गुण नहीं । दूसरे पंडितजीने जो अत्यन्ताभावका निषेध किया है सो पर्यायके अभावमें अत्यन्ताभाव कारण नहीं होता है । अत्यन्ताभाव तो भिन्न दो द्रव्योंमें होता है यहाँ उसका विधान कौन करेगा । यहाँ तो प्रध्वंसाभाव समझना चाहिये । परन्तु प्रध्वंसाभाव हो जाने पर भी वह पर्याय उस वस्तु में रहती ही है यह कल्पना कुछ नई है। इस तरहसे तो संसार अवस्था का प्रध्वंस हो जानेपर भी मुक्तजीवमें संसार अवस्थाका सद्भाव मानना पड़ेगा। परन्तु ऐसा नहीं है।
भावमन यह सर्वथा पौद्गलिक माननेपर उसको ज्ञानस्वरूप नहीं कहा जा सकता है । उसको अचेतन कहना पड़ेगा। अकलंकादिक आचार्योने भावमनका आत्मामें अन्तर्भाव किया है। द्रव्यमन मात्र रूपादिक पुद्गल गुणोंसे सहित होनेके कारण वह पौद्गलिक है। पुद्गल विपाको कर्मके उदयसे द्रव्यमन होता है । द्रव्यमनका (भद) जो निर्वृत्ति युक्त द्रव्यमन है वह आत्माके प्रदेशरूप अष्टदल कमलाकार बनता अभ्यन्तर निर्वृतियुक्त मन कहते हैं । अर्थात् इस आकारके आत्मप्रदेशोंको अर्थात् मनको आत्मा माननेमें कुछ हानि नहीं है। अर्थात् अभ्यन्तर निर्वृत्ति, क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाली विशुद्धि और उसकी सहायतासे पदार्थको माननेके लिये होनेवाली प्रवृत्ति यह सब (तीनों) आत्मस्वरूप ही हैं ऐसा समझना चाहिये । इस अष्टदल कमलाकार आत्मप्रदेशोंके ऊपर गुणदोषोंका विचार करनेके लिये सहायता करनेवाले जिन पुद्गल परमाणुओंकी रचना होती है उसको पोद्गलिक कहते हैं । अर्थात् बाह्य निवृत्ति पौद्गलिक है।
विचार-"भावमनको सर्वथा पौद्गलिक माननेपर उसको ज्ञानरूप नहीं कहा जा सकता है" पंडितजीके इस वाक्यका तो यही अर्थ होता है कि वह सर्वथा पौद्गलिक तो नहीं है किन्तु कथंचित् पौद्गलिक है। यदि पंडितजीको यह अर्थ इष्ट हो तो अकलंकादिक आचार्योंने उसका जो केवल आत्मामें अन्तर्भाव किया है वह पंडितजीके उपर्युक्त कथनसे तो कभी भी नहीं बन सकता है। यदि पंडितजीको उसे केवल ज्ञानस्वरूप मानना इष्ट था तो 'सर्वथा पौद्गलिक माननेपर' इस प्रकारका वचन प्रयोग नहीं करना चाहिये था। क्योंकि उनके ऊपरके कथनसे तो वह कथंचित् अचेतन और कथंचित् चेतन ही सिद्ध होता है । पंडितजी यदि इस विषयका स्पष्ट खुलासा कर दें तो बड़ी अच्छी बात हो। इस विषयमें मेरी तो यह समझ है कि कोई भी
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