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चतुर्थ खण्ड : २६३
८. भुजगार-पदनिक्षेप-वृद्धि अर्थाधिकार
भुजगार स्थितिबन्ध-पिछले समयमें कम स्थितिबन्ध होकर अगले समयमें अधिक स्थितिका बन्ध होना भुजगार स्थितिबन्ध कहलाता है। पिछले समयमें अधिक स्थितिबन्ध होकर अगले समयमें कम स्थितिबन्ध होना अल्पतर स्थितिबन्ध कहलाता है। पिछले समयमें जितना स्थितिबन्ध हआ हो, अगले समयमें उतना ही स्थितिबन्ध होना अवस्थित स्थितिबन्ध कहलाता है तथा पिछले समयमें स्थितिबन्ध न होकर अगले समयमें पुनः स्थितिबन्ध होने लगना अवक्तव्य स्थितिबन्ध कहलाता है। इस अनुयोगद्वारमें इन चारों स्थितिबन्धोंकी अपेक्षा समुत्कीर्तना, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंग विचय, भागाभाग, परिमाण क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर भाव और अल्पबहुत्व इन अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंके स्थितिबन्धका विचार किया गया है ।
पदनिक्षेप -- भुजगार विशेषको पदनिक्षेप कहते हैं । इसमें स्थितिबन्धकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान तथा जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान इन छह पदों द्वारा समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहत्व इन तीन अनुयोग द्वारोंका आलम्बन लेकर स्थितिबन्धका विचार किया गया है।
वृद्धि-पदनिक्षेपविशेषको वृद्धि कहते हैं । इसमें स्थितिबन्ध सम्बन्धी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्य इन पदों द्वारा समुत्कीर्तना आदि १३ अनुयोग द्वारोंका आलम्बन लेकर ज्ञानावरणादि कर्मोकी स्थितिबन्धका विचार किया गया है। ९. अध्यवसान बन्ध प्ररूपणा
इसमें मुख्यतया तीन अनुयोग द्वार है-प्रकृति, समुदाहार, स्थिति समुदाहार, और जीव समुदाहार ।
प्रकृति समुदाहारमें किस कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ है इसका निर्देश करनेके बाद उनका अल्पबहुत्व बतलाया गया है।
स्थिति समुदाहारमें प्रमाणानुगम, श्रेणिप्ररूपणा और अनुकृष्टि प्ररूपणा इन तीन अधिकारोंके द्वारा ज्ञानावरणादि कर्मोकी जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक सभी स्थितिके अध्यवसान स्थानाका ऊहापोह किया गया है। साधारणतः स्थितिबंधाव्यवसान स्थानोंका स्वरूप निर्देश हम पहले कर आये हैं । समयसारके आस्रव अधिकारमें बन्धके हेतुओं का निर्देश करते हुए वे जीव परिणाम ओर पुद्गल परिणाम के भेदसे दो प्रकारके बतलाकर लिखा है कि जो मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप पुद्गलके परिणाम है वे कर्मबन्ध के हेतु है तथा जो राग, द्वेष और मोहरूप जीवके परिणाम हैं वे पुद्गलके परिणाम प आस्रवके हेतु होनेसे कर्मबन्धके हेतु कहे गये हैं। यह सामान्य विवेचन है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस कर्मके जितने उदयविकल्प है उनसे युक्त होकर ही ये द्रव्य और भावरूप आस्रवके भेद कर्मबन्धके हेतु होते है, इसलिए प्रकृतमें स्थितिबंधाध्यवसान स्थानोंमें प्रत्येक कर्मके उदयविकल्पोंको ग्रहण किया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए।
जीवसमुदाहारमें ज्ञानावरणादि कर्मोके बन्धक जीवोंको सातबन्धक और असातबन्धक ऐसे दो भागोंमें विभक्त कर और उनके आश्रयसे विशद विवेचन कर इस अधिकारको समाप्त किया गया है। इस सम्बन्धमें स्पष्ट विवेचन हम पहले ही कर आये हैं। इस समग्र कथनको हृदयंगम करनेके लिए वेदनाखण्ड पुस्तक ११ की द्वितीय चूलिकाका सांगोपांग अध्ययन करना आवश्यक है। १०. उत्तर प्रकृति स्थितिबन्ध अर्थाधिकार
पूर्वमें मूल प्रकृतियों की अपेक्षा स्थितिबन्धका प्रकृतमें प्रयोजनीय जैसा स्पष्टीकरण किया है उसी प्रकार उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा स्पष्टीकरण जानना चाहिए। जो मूल प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका विवेचन
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