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चतुर्थ खण्ड : २६१
प्रकृतियोंके अपने-अपने उदयसे जो परिणाम उत्पन्न होते हैं वे अपने-अपने स्थितिबन्धके कारण हैं, अतः उन्हें ही यहाँ स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान स्वीकार किया गया है।
श्री समयसार आस्रव अधिकार (गाथा १७१) में बतलाया है कि ज्ञान गुणका जब तक जघन्यपना है तब तक वह यथाख्यात चारित्रके पूर्व अन्तमुहूर्त-अन्तमुहूर्तमें पुन. पुनः परिणमन करता है, इसलिए उसके साथ रागका सद्भाव अवश्यंभावी होनेसे वह बन्धका हेतु होता है । आगे : गाथा १७२ में) इसे और भी स्पष्ट करते हए बतलाया है कि यद्यपि ज्ञानीके बुद्धिपूर्वक अर्थात् मैं रागादि भावोंका कर्ता हूँ और वे भाव मेरे कार्य है इस प्रकार रागादिके स्वामित्वको स्वीकार कर राग, द्वेष और मोहका अभाव होनेसे वह निरास्रव ही हैं, फिर भी जबतक वह अपने ज्ञान (आत्मा) को सर्वोत्कृष्ट रूपसे अनुभवने, जानने और उसमें रमनेमें असमर्थ होता हआ उसे जघन्य भावसे अनुभवता है, जानता है और उसमें रमता है तब तक जघन्य भावकी अन्यथा उत्पत्ति न हो सकनेके कारण अनुभीयमान अबुद्धिपूर्वक कर्म कलंकके विपाकका सद्भाव होनेसे उसके पुद्गल कर्मका बन्ध होता ही है।
यह आगम प्रमाण है । इससे ज्ञात होता है कि केवल कषाय-उदयस्थानोंकी स्थिति बन्धाध्यवसानस्थान संज्ञा न होकर कषाय-उदयस्थानोंसे अनुरंजित ज्ञानावरणादि कर्मोमेंसे अपने-अपने न.मके उदयसे होनेवाले परिणामोंकी स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान संज्ञा है। अब इन स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंके सद्भावमें ज्ञानावरणादि कर्मोका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जधन्य और अजघन्य स्थितिबन्ध किसके होता है इसका विचार करते हैं । ज्ञानावरणका बन्ध करनेवाले जीव दो प्रकारके हैं-सातबन्धक और असातबन्धक, क्योंकि जो जीव ज्ञानावरणीय कर्मोंका बन्ध करते हैं वे यथासम्भव सातावेदनीय और असातावेदनीय इनमेंसे किसी एकका बन्ध अवश्य करते हैं। उनमेंसे सातबन्धक जीव तीन प्रकारके है-चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक । जघन्य स्पर्धकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक सातावेदनीयका अनुभाग चार भागोंमें विभक्त है। उनमेंसे प्रथम खण्ड गुडके समान है । दूसरा खण्ड खाँडके समान है, तीसरा खण्ड शर्कराके समान है और चौथा खण्ड अमृतके समान है। जिसमें ये चारों स्थान होते है उसे चतुःस्थानबन्ध कहते हैं, जिसमें अन्तिम खण्डको छोड़कर प्रारम्भके तीन स्थान होते हैं उसे त्रिस्थानबन्ध कहते हैं तथा जिसमें प्रारम्भके दो स्थान होते हैं उसे द्विस्थानबन्ध कहते हैं । जिसमें प्रारम्भका एक भाग हो ऐसे अनुभागसहित सातावेदनीयका बन्ध नहीं होता, सत्व होता है, इसलिए यहाँ सातावेदनीयका एक स्थान बन्ध नहीं कहा। उक्त प्रकारसे सातावेदनीयके बन्धक जीव भी तीन प्रकारके हो जाते हैं।
असातबन्धक जीव भी तीन प्रकारके हैं-द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक, और चतुःस्थानबन्धक । जघन्य स्पर्धकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक असातावेदनीयका अनुभाग चार भागोंमें विभक्त है। उनमेंसे प्रथम खण्ड नीमके समान है, दूसरा खण्ड कांजीरके समान है, तीसरा खण्ड विषके समान है और चौथा खण्ड हालाहलके समान है । जिसमें प्रारम्भके दो स्थान होते हैं उसे द्विस्थानबन्ध कहते है, जिसमें प्रारम्भके तीन स्थान होते हैं उसे त्रिस्थानबन्ध कहते हैं तथा जिसमें चारों स्थान होते हैं उसे चतुःस्थानबन्ध कहते हैं। इस प्रकार असाताके उक्त स्थानोंके बन्धक जीव भी तीन प्रकारके होते है।
यहाँ सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक जीव सबसे विशुद्ध होते हैं। यहाँ अत्यन्त तीव्र कषायके अभावस्वरूप मन्द कषायका नाम विशुद्धता है। वे अत्यन्त मन्द संक्लेश परिणामवाले होते हैं यह इसका तात्पर्य है। उनसे सातावेदनीयके त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर होते हैं अर्थात् उत्कट कषायवाले होते हैं । उनसे सातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर होते है। अर्थात् सातावेदनीयके त्रिस्थानबन्धक जीव जितने उत्कट कषायवाले होते हैं उनसे द्विस्थानबन्धक जीव और अधिक संक्लेशयुक्त कषायवाले होते हैं :
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