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चतुर्थ खण्ड : २५९ २. निषेक प्ररूपणा
दसरा अनुयोग द्वार निषेक प्ररूपणा है । इसको अनन्तरोपनिघा और परम्परोपनिषा के आधारसे निबद्ध कर इस अनुयोग द्वारको समाप्त किया गया है। स्पष्टीकरण इस प्रकार है-आयु कर्मको छोड़कर अन्य कर्मोका जितना-जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बन्ध होता है उसमेंसे आबाधाको कम कर जितनी स्थिति शेष रहती है उसके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक स्थितिके प्रत्येक समयमें उत्तरोत्तर क (क चयकी हानि होते हुए प्रत्येक समयमें बद्ध द्रव्य निषेक रूपसे विभक्त होता है। इसे विशेष रूपसे समझनेके लिए जीवस्थान चूलिका (पृ० १५० से १.८ तक) को देखिए । प्रत्येक समयमें जितना द्रव्य बंधता है उसकी समय प्रबद्ध संज्ञा है। स्थिति बन्धके समय आबाधाको छोड़कर स्थितिके जितने समय शेष रहते है उनमेंसे प्रत्येक समयमें समय प्रबद्ध मेंसे जितना द्रव्य निक्षिप्त होता है उसकी निषेक संज्ञा है तथा स्थिति बन्धके होने पर उसके प्रारम्भके जितने समयोंमें समय-प्रबद्ध सम्बन्धी द्रव्यका निक्षेप नहीं होता उसकी आबाधा संज्ञा है। प्रथम निषेकसे दूसरे निषेक में, दूसरे निषेकसे तीसरे निषेकमें इत्यादि रूपसे अन्तिम निषेक तक उत्तरोत्तर जितने द्रव्यको कम करत जाते हैं उसकी चय संज्ञा है। इसी प्रकार अन्य विषयोंको समझ कर प्रकृत प्ररूपणाका स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। ३. आबाधाकाण्डक प्ररूपणा
__ तीसरा अनुयोग द्वार आबाधाकाण्डक प्ररूपणा है। आयुकर्मको छोड़कर शेष कर्मोका जितना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो उसकी स्थितिके सब समयोंमें वहाँ प्राप्त आबाधाके समयोका भाग देनेपर जितना लब्ध आवे उतने समयोंका एक आबाधाकाण्डक होता है। अर्थात उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे लेकर उत्कृष्ट स्थितिमेसे जितने समय कम हुए हों वहाँ तक स्थितिबन्धके प्राप्त होनेपर उस सब स्थितिबन्ध सम्बन्धी विकल्पोंको उत्कृष्ट आबाधा होती है । अतः इन्हीं सब स्थितिबन्धके विकल्पोंका नाम एक आबाधाकाण्डक है। ये सब आबाधाकाण्डक प्रमाण स्थितिबन्धके भेद पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। इसी विधिसे अन्य आबाधाकाण्डक जानने चाहिए । यह नियम स्थितिबन्धमें वहीं तक समझना चाहिए जहाँ तक उक्त नियमके अनुसार आबाधाकाण्डक प्राप्त होते हैं। आयु कर्म के स्थितिबन्ध में उसकी आबाधा परिगणित नहींकी जाती, वह अतिरिक्त होती है, इसलिए कर्म भूमिज मनुष्य और तिर्यंचोंमें उत्कृष्ट या मध्यम किसी भी प्रकारकी आयुका बन्ध होनेपर आबाधा पूर्व कोटिके त्रिभागसे लेकर आसंक्षेपाद्धाकाल तक यथा सम्भव कुछ भी हो सकती है। नारकियों, भोगभूमिज तिर्यचों और मनुष्यों तथा देवोंमें भुज्यमान आयुमें छह महिना अवशिष्ट रहने पर वहाँ से लेकर आसंक्षेपाद्धाकाल तक आबाधा कुछ भी हो सकती है। अतः आयुकर्ममें उक्त प्रकारके आबाधाकाण्डक के सम्भव होनेका प्रश्न ही नहीं उठता। ३. अल्पबहुत्व प्ररूपणा
इस अनुयोग द्वारमें १४ जीवसमासोंमें जघन्य और उत्कृष्ट-आबाधा, आबाधास्थान, आबाधाकाण्डक, नानागुण हानिस्थान, एकगुण हानिस्थान जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और स्थितिबन्धस्थान पदोंके आलम्बनसे जिस क्रमसे इन पदोंमें अल्प बहुत्व सम्भव है उसका निर्देश किया गया है ।। ४. चौवीस अनुयोगद्वार
आगे उक्त अर्थपदके अनुसार २४ अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर ओघ और आदेशसे स्थितिबन्धको विस्तारके साथ निबद्ध किया गया है। अनुयोगद्वारोंके नाम वही हैं जिनका निर्देश प्रकृतिबन्धके निरूपणके प्रसंगसे कर आये हैं । मात्र प्रकृतिबन्धमें प्रथम अनुयोग द्वारका नाम प्रकृतिसमुत्कीर्तन है और यहाँ उसके स्थानमें
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