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२६४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ करते हुए अनुयोगद्वार स्वीकार किये गये हैं वे ही यहाँ स्वीकार कर उत्तर प्रकृति स्थितिबन्धकी प्ररूपणाकी गई है।
अनुभागबन्धकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि कर्मोकी सब प्रकृतियाँ दो भागोंमें विभक्त हैं। पुण्य प्रकृतियाँ और पाप प्रकृतियाँ । पण्य प्रतियोंको प्रशस्त प्रकृतियाँ और पाप प्रकृतियों को अप्रशस्त प्रक है। किन्तु स्थितिबन्धकी अपेक्षा तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायुको छोड़कर शेष ११७ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यथासम्भव उत्कृष्ट संकटेश या तत्प्रायोग्य संकटेश परिणामोंसे होता है, इसलिए शुभ और अशुभ इन सब प्रकृतियोंकी स्थिति अशुभ ही मानी गई है। मात्र पूर्वोक्त तीन आयुओंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यथा सम्भव तत्प्रायोग्य विशुद्व परिणामोंसे होता है, इसलिए इन तीन आयुओंकी उत्कृष्ट स्थिति शुभ मानी गई है। यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि उक्त ११७ प्रकृतियों में से जिन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सातावेदनीयके बन्धकालमें होता है वहाँ उत्कृष्ट संक्लेश या तत्प्रायोग्य संक्लेशका अर्थ सातावेदनीयके बन्ध योग्य जघन्य या तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धिके अन्तर्गत संक्लेश परिणाम लिया गया है । तथा जिन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असातावेदनीयके बन्धकालमें होता है वहाँ उत्कृष्ट संक्लेव या तत्प्रायोग्य संक्लेशका अर्थ असातावेदनीयके बन्ध योग्य उत्कृष्ट संक्लेश या तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशके अन्तर्गत संक्लेश परिणाम लिया गया है। इन ११७ प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष तीन आयओंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यथास्थान सातावेदनीयके बन्ध योग्य तत्प्रायोग्य विशुद्धिरूप परिणामोंके कालमें होता है।
___यह सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामित्वका विचार है। सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वका विचार करते समय तह विशेषरूपसे ज्ञातव्य है कि जिन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिके जीव करते हैं उनके लिए जिन विशेषणोंका प्रयोग किया गया है उनमें वे सर्व विशुद्ध होते हैं या तत्प्रयोग्य विशुद्ध होते हैं, इस प्रकारका कोई भी विशेषण नहीं दिया गया है । जब कि ऐसे जीवोंके उत्तरोत्तर प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धि होती जाती है। ऐसा क्यों किया गया है यह एक प्रश्न है ? समाधान यह है कि ये जीव शुद्धोपयोगी होते हैं, इसलिए इनके जितना कषायांश पाया जाता है वह सब अबुद्धिपूर्वक ही होता है। यही कारण है कि इन्हें उक्त प्रकारके कपायांशको अपेक्षा 'सर्व विशुद्ध या तत्प्रायोग्य विशुद्ध' विशेषणसे विशेषित नहीं किया गया है। इतना अवश्य है कि इनके प्रति समय उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हानिको लिए हए वह कषायांश पाया अवश्य जाता है, इसलिए इस अपेक्षासे उनके उत्तरोत्तर प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिका भी सद्भाव बतलाता गया है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वके विषयमें ऐसा समझना चाहिए कि जिन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सातावेदनीयके बन्धकालमें होता है वहाँ उन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके योग्य जो परिणाम होते है वे सातावेदनीयके बन्धयोग्य विशुद्धिकी जातिके होते हैं और जिन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध असाता वेदनीयके बन्धकालमें होता है वहाँ उन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके योग्य जो परिणाम होते हैं वे असातावेदनीयके बन्ध योग्य संक्लेश परिणामोंकी जातिके होते हैं।
यह सब प्रकृतियोंके स्थितबन्धके स्वामित्वका विचार है । अन्य अनुयोग द्वारोंका ऊहापोह इस आधारसे कर लेना चाहिए, क्योंकि यह अनुयोगद्वार शेष अनुयोगद्वारों की योनि है ।
३. अनुभाग बन्ध ___ फल-दान शक्तिको अनुभाग कहते हैं । ज्ञानावरणादि मूल और उनकी उत्तर प्रकृतियोंका बन्ध होने पर उनमें जो फलदान शक्ति प्राप्त होती है उसे अनुभाग बन्ध कहते है । वह मूल प्रकृति अनुभाग बन्ध और उत्तर
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