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चतुर्थखण्ड : २६५
प्रकृति अनुभाग बन्धके भेदसे दो प्रकारका है । उन्हीं दोनों अनुभाग बन्धोंका इस अर्थाधिकार में निरूपण किया गया है। सर्वप्रथम मूलप्रकृति अनुभाग बन्धके प्रसंगसे ये दो अनुयोग द्वार निबद्ध किये गये हैंनिषेक प्ररूपणा और स्पर्धक प्ररूपणा । ज्ञानावरणादि कर्मोमेंसे जिसमें देशघाति या सर्वपाति जो स्पर्धक होते हैं वे आदि वर्गणासे लेकर आगेकी वर्गणाओंमें सर्वत्र पाये जाते हैं । इस विषयका प्रतिपादन निषेक प्ररूपणा में किया गया है। अनन्तानन्त अविभाग प्रतिच्छेदोंका एक वर्ग होता है, सिद्धों के अनन्तवे भाग और अभव्योंसे अनन्त गुणे वर्गोंकी एक वर्गणा होती है, तथा उतनी ही वर्गणाओंका एक स्पर्धक होता है इस विषयका विवेचन स्पर्धक प्ररूपणा में किया गया है ।
२४. अनुयोग द्वार
आगे उक्त अर्थपदके अनुसार २४ अनुयोग द्वारोंका आलम्बन लेकर ओघ और आदेशसे अनुभाग बन्धको विस्तारसे निबद्ध किया गया है। अनुयोग द्वारोंके नाम वे ही हैं जिनका निर्देश प्रकृति बन्धके निरूपणके प्रसंगसे कर आये है । मात्र प्रकृति बन्धमें प्रथम अनुयोग द्वारका नाम प्रकृति समुत्कीर्तन है और इस अर्था विकार में प्रथम अनुयोग द्वारका नाम संज्ञा है ।
१ संज्ञा अनुयोगद्वार
संज्ञाके दो भेद है - घाति संज्ञा और स्थान संज्ञा । ज्ञानावरणादि आठ कर्मों मेंसे कौन कर्म घाति है और कौन जाति हैं इस विषयका ऊहापोह करते हुए बतलाया है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार जाति कर्म है तथा शेर चार अपाति कर्म हैं जो आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र सुख, वीर्य, दान, लाभ, भोग, और उपभोग आदि गुणोंका घात करते हैं उन्हें घाति कर्म कहते हैं तथा जो इन गुणोंके घातनेमें समर्थ नहीं हैं उन्हें अपाति कर्म कहते हैं। अपाति कर्ममिसे वेदनीय कर्मके उदयसे पराश्रित सुख, दुःखकी उत्पत्ति होती है । आयु कर्मके उदयसे नारक आदि भावोंमें अवस्थिति होती है । नाना कर्मके उदयसे नारकादि गतिरूप जीव भावकी तथा विविध प्रकारके शरीरादिकी उत्पत्ति होती है तथा गोत्र कर्मके उदयसे जीवमें ऊँच और नीच आचारके अनुकूल जीवभावकी उत्पत्ति होती है।
स्थान संज्ञाद्वारा घाति और अघाति कर्म विषयक अनुभागके तारतम्यको बतलानेवाले स्थानोंका निर्देश किया गया है। उनमेंसे घाति कर्म सम्बन्धी स्थान चार प्रकार के हैं- एकस्थानीय द्विस्थानीय त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय जिसमें लताके समान लचीला अति अल्प फलदान शक्तियुक्त अनुभाग पाया जाता है वह एक स्थानीय अनुभाग कहलाता है । जिसमें दारुके ( काष्ठके) समान कुछ सघन और कठिन फलदान शक्तियुक्त अनुभाग पाया जाता है वह द्विस्थानीय अनुभाग कहलाता है । जिसमें हड्डीके समान सघन होकर अति कठिन फलदान शक्तियुक्त अनुभाग पाया जाता है वह त्रिस्थानीय अनुभाग कहलाता है, तथा जिसमें पाषाणके समान अति कठिनतर सघन फलदान शक्तियुक्त अनुभाग पाया जाता है वह चतुःस्थानीय अनुभाग कहलाता है । इस प्रकार उक्त विधिसे पाति कमका अनुभाग चार प्रकारका है उसमेंसे एक स्थानीय अनुभाग और द्विस्थानीय अनुभाग प्रारम्भका अनन्तवां भाग यह देशघाति है, शेष सर्व अनुभाग सर्वघाति है ।
प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदने अघाति कर्म दो प्रकारके हैं। उनमें से प्रत्येक कर्ममें चार-चार प्रकारका अनुभाग पाया जाता है। पहले हम सातावेदनीय और असातावेदनीय इन दो कर्मोंमें वह चार-चार प्रकारका अनुभाग कैसा होता है इसका स्पष्ट उल्लेख कर आये हैं उसी प्रकार वहाँ भी घटित यह निर्देश करना आवश्यक प्रतीत होता है कि अनुभागबन्धके प्रारम्भका एक ताडपत्र कारण प्ररूपणा तथा इससे आगेकी छह अनुयोग द्वार सम्बन्धी प्ररूपणा उपलब्ध नहीं है। साथ ही सादि
कर लेना चाहिए । यहाँ पुटिन हो गया है। इस
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