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चतुर्थ खण्ड २७१
परिस्पन्द होना ही चाहिए सो यह एकान्त नियम नहीं है किन्तु नियम यह है कि जो भो परिस्पन्द होता है वह योग के निमित्तसे ही होता है, अन्य प्रकारसे नहीं । इसी प्रकार यह बात भी ध्यानमें रखनी चाहिए कि जीवका एक क्षेत्रको छोड़कर क्षेत्रान्तरमें जाना इसका नाम योग नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर सिद्ध जीवोंका सिद्ध होने के प्रथम समयमें जो ऊर्ध्वं लोकके अन्त तक गमन होता है उसे भी योग स्वीकार करना पड़ेगा । अत एव यही निश्चित होता है कि जहाँ तक शरीर नामकर्मका उदय है योग वहीं तक होता है | अतः योग केवल गुणस्थानके अन्तिम समय तक यथासम्भव उक्त कमका उदय नियमसे पाया जाता है, अतः योगका सद्भाव भी वहीं तक स्वीकार किया गया है।
वह योग तीन प्रकारका है— मनोयोग, वचनयोग और काययोग | भावमनकी उत्पत्ति के लिए होनेवाले प्रयत्नको भावमन कहते हैं, वचनकी प्रवृत्तिके लिए होनेवाले प्रयत्नको वचनयोग कहते हैं, तथा शरीकी किवाकी उत्पत्तिके लिए होनेवाले प्रयत्नको काययोग कहते हैं। इन तीनों योगोंकी प्रवृत्ति क्रमसे होती है इन तीनों में से जब जिसकी प्रधानता होती है तब उस नामका योग कहलाता है। यद्यपि कहीं मन, वचन और कायकी युगपत् प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है सो इस प्रकार युगपत् प्रवृत्ति होनेमें विरोध नहीं हैं । किन्तु उनके लिए युगपत् प्रयत्न नहीं होता, अतः जब जिसके लिए प्रथम परिस्पन्दरूप प्रयत्न विशेष होता है तब वहीं योग कहलाता है ऐसा समझना चाहिए ।
एक जीवके लोकप्रमाण प्रदेश होते हैं उनमें एक कालमें परिस्पन्दरूप जो योग होता है उसे योगस्थान कहते हैं । उसकी प्ररूपणामें ये दस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है — अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणा प्ररूपणा, स्पर्धक अन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा, और
प्ररूपणा, अन्तप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अल्पबहुत्व |
एक-एक जीव प्रदेशमें जो जघन्य वृद्धि होती है वह योग अविभागप्रतिच्छेद कहलाता है। इस विधि एक जीव प्रदेशमें असंख्यात लोक प्रमाण योग — अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। इस प्रकार यद्यपि जीवके सब प्रदेशमें उक्त प्रमाण ही योग — अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। फिर भी एक जीव प्रदेशमें स्थित जघन्य योगसे एक जीव प्रदेशमें स्थित उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा होता है।
सब जीव प्रदेशों में समान योग - अविभागप्रतिच्छेद नहीं पाये जाते, इसलिए असंख्यात लोकप्रमाण योग- अविभागप्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है । सब वर्गणाओंका सामान्यसे यही प्रमाण जानना चाहिए। आशय यह है कि जितने जीव प्रदेशों में समान योग अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं उनकी एक वर्गणा होती है । तथा दूसरे एक अधिक समान योग अविभागप्रतिच्छेदवाले जीव प्रदेशोंकी दूसरी वगंगा होती है। यही विधि एक स्पर्धकके अन्तर्गत तृतीयादि वर्गणाओंके विषयमें भी जानना चाहिए ये सब वर्गणाएँ एक जीवके सब प्रदेशों में श्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं। इतना विशेष है कि प्रथम वर्गणासे द्वितीयादि वर्गणायें जीव प्रदेशोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर विशेष हीन होती हैं। एक वर्गणा में कितने जीव प्रदेश होते हैं इसका समाधान यह हैं कि प्रत्येक वर्गाणामे जीव प्रदेश असंख्यात प्रतरप्रमाण होते हैं |
जहाँ क्रमवृद्धि और क्रमहानि पाई जाती है उसकी स्पर्धक संज्ञा है। इस नियमके अनुसार जगत् श्रेणी: संख्यातवें भाग प्रमाण वगंणाओंका एक स्पर्धक होता है । इस स्पर्धकके अन्तर्गत जितनी वर्गणायें होती हैं उनमें से प्रथम वर्गणाके एक वर्ग में जितने योग अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं उससे दूसरी वर्गणा के एक वर्गमें एक अधिक योग-अविभागप्रतिच्छेद होते हैं यही क्रम प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणा तक जानना चाहिए। इसके आगे उक्त क्रमवृद्धिका बिच्छेद हो जाता है। इस विधिसे एक जीवके सब प्रदेशों में जगत् श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्धक प्राप्त होते हैं । इतना विशेष है कि प्रथम स्पर्धकके ऊपर ही प्रथम स्पर्धककी ही वृद्धि होनेपर दूसरा स्पर्धक प्राप्त होता है, क्योंकि प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके एक वर्ग से
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