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२५८ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्य
है ऐसा प्रतीत होता है। महाबन्धमें इस स्थलपर इसका कोई संकेत दृष्टिगोचर नहीं होता। संक्षेपमें स्पष्टीकरण इस प्रकार है
१४ जीव समासोंमें स्थितिबन्धस्थान स्थितिबन्धस्थान - प्ररूपणा सक्ष्मनिगोदिया लक्ष्यपर्याप्त से लेकर संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक तक उत्तरोत्तर कितने गुणे होते हैं यह स्थितिबन्धस्थान प्ररूपणा इस अनुयोगद्वारमें निबद्ध किया गया है। तथा इसी अनुयोगद्वारके उक्त चौदह जीवसमासोंमें संक्लेश विशुद्धिस्थानोंके अल्प बहुत्वको निबद्ध किया गया है यहाँ पर जिन परिणामोंसे कर्मोकी स्थितियोंका बन्ध होता है उनकी स्थितिबन्ध संज्ञा करके इस अनुयोगद्वारमें स्थितिबन्धके कारणोंके आधारसे अल्प बहुत्वका विचार किया गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
परिवर्तमान असाता, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयशः कीति और नीच गोत्र प्रकृतियोंके बन्धके योग्य परिणामों को संक्लेश स्थान कहते हैं । तथा साता, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके बन्ध योग्य परिणामोंको विशुद्धिस्थान कहते हैं। यहाँ पर वर्धमान कयायका नाम संक्लेश और हीयमान वायका नाम विशुद्धि यह अयं परिगृहीत नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर दोनों स्थानोंको एक समान स्वीकार करना पड़ता है और ऐसी अवस्थामें जघन्य कषाय स्थानोंको विशुद्धिरूप, उत्कृष्ट कषाय स्थानोंको संक्लेष रूप तथा मध्यके कषाय स्थानोंको उभयरूप स्वीकार करना पड़ता है । स्थानोंसे विशुद्धि स्थान थोड़े हैं इस प्रकार जो प्रवाह्यमान गुरुओंका उपदेश चला आ रहा है, साथ उक्त कथनका विरोध आता है। तीसरे उत्कृष्ट स्थिति बन्धके कारणभूत विशुद्धि स्थान जघन्य स्थिति बन्धके कारणभूत विशुद्धि स्थान बहुत हैं यह जो गुरुयोंका उपदेश उपलब्ध होता है साथ भी उक्त कपनका विरोध आता है, इसलिए हीयमान कषाय स्थानोंको विशुद्धि कहते हैं समीचीन नहीं है।
दूसरे संक्लेश
इस कथन के अल्प है और
इस कथन के यह मानना
यद्यपि दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीयकी उपशमना और क्षपणामें प्रति समय अव्यवहित पूर्व समयमें उदयागत अनुभाग स्पर्धकोंसे अगले समय में गुणहीन अनुभाग स्पधंको के उदयसे जो कषाय उदय स्थान उत्पन्न होते हैं उन्हें विशुद्धि स्वरूप स्वीकार किया गया है, इसलिए हीयमान कषायको विशुद्धि कहते हैं यह नियम यहाँ बन जाता है यह ठीक है। परन्तु इस नियमको जीवोंकी अन्यत्र संसार स्वरूप अवस्थामें लागू नहीं किया जा सकता है, क्योंकि उस अवस्थामें छह प्रकारकी वृद्धि और छह प्रकारकी हानि द्वारा कवाय उदय स्थानोंकी उत्पत्ति देखी जाती है।
माना कि संसार अवस्था में भी अनन्तगुण हानिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त स्वीकार किया गया है, इसलिए वहाँ भी अन्तर्मुहूर्त काल तक अनुभाग स्पर्धकोंको हानि होनेसे उतने ही काल तक विशुद्धि बन जाती है यह कहा जा सकता है। परन्तु यहाँ विशुद्धिका यह अर्थ विवक्षित नहीं हैं किन्तु यहाँ पर साता अदिके बन्धके योग्य परिणामोंको विशुद्धि कहते हैं । और असाता आदिके बन्धके योग्य परिणामोंको संक्लेश कहते हैं यही अर्थ विवक्षित है । अन्यथा उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके योग्य विशुद्धिस्थान अल्प होते हैं यह नियम नहीं बन सकता। इसलिए जघन्य स्थिति बन्धसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति बन्ध तक संक्लेश स्थान उत्तरोत्तर अधिक होते हैं और उत्कृष्ट स्थिति बन्धसे लेकर जघन्य स्थिति बन्ध तक विशुद्धि स्थान उत्तरोत्तर अधिक होते हैं यह सिद्ध हा जाता है और ऐसा सिद्ध हो जानेपर लक्षण भेदसे दोनों प्रकारके परिणामों को पृथक पृथक् ही मानना चाहिए। इन दोनों प्रकारके परिणामोंका पृथक् पृथक् लक्षण पूर्व में किया ही है ।
इस प्रकार १४ जीव समासोंमें संक्लेश, विशुद्धि स्थानोंकी अपेक्षा अल्प बहुत्वके समाप्त होने पर इसी अनुयोग द्वारमें संयतों सहित १४ जीव समासोंमें पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकारके जीवोंको विवक्षित कर जपन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अल्पबहुत्वका निर्देश करके इस अनुयोग द्वारको समाप्त किया है।
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