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२४४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
सयोगकेवली द्रव्यमन होते हुए भी भावमनसहित द्रव्यमन नहीं होता है । उसी तरह भावेन्द्रिय सहित द्रव्येन्द्रिय न हो कर केवल द्रव्येन्द्रिय ही होती हैं । कारण क्षायिकज्ञानके साथ क्षायोपशमिक भावमन और भावेन्द्रियों के रहनेका विरोध है । अर्थात् जहाँपर क्षायिकज्ञान होता है, वहाँपर क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकता है । भावमन यह क्षायोपशमिक ज्ञानका एक भेद है अतएव सयोगकेवली अवस्था में उसका सद्भाव बिल्कुल ही नहीं हो सकता है । गोमट्टसार जीवकांडमें भी कहा है ।
पज्जत्ती पाणा विय सुगमा भाविदियं ण जोगिहि | तहि वाचस्सासाउगकायत्तिगदुगमजोगिणो आऊ ।।
सयोगिजिने भावेंद्रियं न, द्रव्येंद्रियापेक्षया षट् पर्याप्तयः वागुच्छ्वासनिःश्वासायुःकायप्राणा श्वत्वारि भवंति । शेषेंद्रियमनः प्राणाः षट् संति ।
सयोगी जिनमें भावेंद्रिय अर्थात् पाँच भाव इन्द्रियाँ और भावमन नहीं होता है । द्रव्येन्द्रियकी अपेक्षासे सयोगी भगवान् के छह पर्याप्तियाँ कही जा सकती हैं । वचन, उच्छ्वास, आयु और कायबल इस तरह केवल चार ही प्राण जिन भगवान् के होते हैं । बाकीके पाँच इन्द्रिय प्राण और एक मनप्राण इस तरह छह प्राण उनके नहीं होते हैं ।
झाणं तह झायारो झेयवियप्पा य होंति मणसहिए ।
तं णत्थि केवलीदुगे तम्हा झाण ण सभवई । - - भावसंग्रह.
ध्यान, 'याता व ध्येयांचे विकल्प हे मनसहित जीवाच्या ठिकाणी संभवतात । हे विकल्प सयोगकेवली व अयोगकेवली यांच्या ठिकाणी संभवत नाहींत यांचे कारण हें आहे की उपर्युक्त केवलिद्ववाच्या ठिकाणीं मन नाहीं । वीर्यांतराय कर्माच्या क्षयोपशम व नो इंद्रियावरण कर्माचा क्षयोपशम आला म्हणजे आत्म्याचे प्रदेश मन स्वरूपानें परिणत होता त । या केवलींद्वयानी अंतराय कर्माचा य वीर्यांतराय कर्माचा नाश केल्यामुळे त्याचा ठिकाणी मन कसे असणार ? अर्थात् केवली अमनस्क असतात । 'अमनस्का: केवलिनः' असे आगमांत लिहिले आहे मनसहित जीवामध्यें ध्यान होते । पृष्ठ ३ ५ अनु० पं० जिनदास पार्श्वनाथजी फडकुले न्यायतीर्थं । इस कथनसे बिल्कुल ही स्पष्ट हो जाता है कि भाव मनका स्वामी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थानतक एक संज्ञी पंचेंद्रिय ही होता है । एकेंद्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेद्रिय पर्यंत भावमन नहीं पाया जा सकता है।
भाव विचार
जीवके पाँच भाव कहे गये हैं । उनमेंसे भावमनका सद्भाव क्षायोपशपिक भावमें ही होता है जो उसके लक्षणसे ही स्पष्ट है । भावमन यह मतिज्ञान का एक भेद है । और मतिज्ञान यह क्षायोपशमिक है अतएव भावमन यह क्षायोपशमिक ही ठहरता है । इसकी पुष्टि ऊपर के कथन से भले प्रकार हो जाती है । अतएव इसके लिये स्वतंत्र प्रमाण देनेकी विशेष आवश्यकता नहीं है ।
भावमन जीवका धर्म है इसमें हेतु -
भावमन यह ज्ञान विशेष होने के कारण वह जीवका धर्म है, ऐसा मान लेने में विशेष कुछ भी आपत्ति नहीं है । 'चेतनालक्षणो जीवः' जीवका लक्षण ही चेतना अर्थात् ज्ञान और दर्शन किया है, अतएव वह जीवका धर्म ठहर जाता है ।
भाव मनको पौद्गलिक माननेमें हेतु -
ऊपर हम भावमनको ज्ञान विशेष है, ऐसा स्वीकार कर आये हैं । फिर भी यहाँ पर उसे पौद्गलिक सिद्ध करना यह परस्पर विरोध हैं । परन्तु दृष्टि भेदसे विचार करनेपर यह विरोध अपने आप नष्ट हो जाता
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