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२४६ : सिद्धान्ताचार्यं पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
तो उसकी वह मान्यता मिथ्या ही कही जावेगा । अशुद्धताके रहते हुए भी शुद्धताको न मानना दूसरी बात है और स्वरूप दृष्टिसे शुद्धताका अनुभव करना, दूसरी बात है ।
इस तरह यह सिद्ध हो जाता है कि नयभेदसे यह सब कथन परस्पर विरोधी नहीं है । यदि भावमन सर्वथा जीवका मान लिया जावे, तो वह आत्माकी शुद्ध अवस्थामें, क्यों उपलब्ध नहीं होता है ? यह प्रश्न खड़ा ही रहता । उसी प्रकार बद्ध अवस्था किसकी है। ऐसा प्रश्न किया जावे तो सहज हो कोई यही उत्तर देगा कि यह जीवकी पुद्गलके योगसे हुई है । तो इससे यह भी समझ लेना चाहिये कि उस अवस्था के निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले जितने भी गुणधर्म हैं वे सब एकके न होकर भी निमित्तके सद्भावमें ही होते हैं । उन गुणधर्मो में कहीं आत्मा उपादान रहता है और कहीं पुद्गल उपादान रहता है । मुझे विश्वास है कि इस ऊपरके कथनसे भावमानके संबंधमें दोनों दृष्टिकोणों का उत्तम प्रकार से खुलासा हो गया होगा ।
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