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चतुर्थ खण्ड : १९५ इस प्रकार ये कतिपय उद्धरण हैं जिनके आधारसे ऐसे प्रेरक व्यवहार हेतुओंका समर्थन होता है जो लोकमें चक्षु इन्द्रियसे विलक्षण प्रकारसे दूसरे द्रव्यों के कार्यों में व्यवहार हेतु होते हुए देखे जाते हैं। इससे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि यद्यपि चक्षु इन्द्रिय क्रियावान् होकर भी रूपकी उपलब्धिमें प्रेरक बाह्य हेतु भले हो न हो, किन्तु इसका कोई यह अर्थ करे कि जितने भी क्रियावान् पदार्थ है वे सब धर्मादि व्योंके समान उदासीन व्यवहार हेतु ही होते हैं तो यह कथन पूर्वोक्त आगम प्रमाजोंसे बाधित हो जाता है, इन्द्रिय प्रत्यक्ष, अनुभव और युक्तिसे विचार करनेपर भी इस कथनकी सत्यता प्रमाणित नहीं होती। कारण कि लोकमें ऐसे बहुतसे उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं जिनको ध्यानमें लेनेपर व्यवहारसे प्रेरक निमित्तोंकी सिद्धि होती है। अपने इस कथनकी पुष्टिमें वे वायुका उदाहरण विशेषरूपसे उपस्थित कर कहते हैं कि जिस प्रकार वायुका संचार होनेपर वह ध्वजा आदि अन्य पदार्थों के उड़नेम व्यवहारसे प्रेरक निमित्त होता है उसी प्रकार सभी प्रेरक निमित्तोंके विषयमें जानना चाहिए। पञ्चास्तिकाय समय व्याख्या टोकासे इसकी पुष्टि होती है । यथा
___ यथा गतिपरिणतो प्रभंजनः वैजयन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्ताऽवलोक्यते न धर्मः । स खलु निष्क्रियत्वान्न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवापद्यते, कुतोऽस्य सहकारित्वेन परेषां गतिपरिणामस्य हेतुकतृत्वम् । गाथा ८८।।
जिस प्रकार गतिपरिणत वायु ध्वजाओंके गतिपरिणामका हेतुकर्ता देखा जाता है, धर्म द्रव्य नहीं । वह वास्तव में निष्क्रिय होनेसे कभी भी गतिपरिणामको नहीं प्राप्त होता, इसलिए इसका सहकारीपनेरूपसे दूसरेके गतिपरिणामका हेतु कर्तृत्व कैसे हो सकता है ।
यह व्यवहारसे प्रेरक निमित्तोंका एक उदाहरण है । लोकमें ऐसे हजारों उदाहरण देखे जाते हैं, इसलिए इन सब उदाहरणोंको देखते हुए यह सिद्ध होता है कि जहाँपर निष्क्रिय पदार्थोके समान सक्रिय पदार्थ व्यवहारसे उदासीन निमित्त होते हैं वहाँ तो प्रत्येक कार्य अपने-अपने विवक्षित निश्न अनुसार ही होता है और जहाँपर सक्रिय पदार्थ व्यवहारसे प्रेरक निमित्त होते हैं वहाँपर प्रत्येक कार्य निश्चय उपादानसे होकर भी जब जैसे व्यवहारसे प्रेरक निमित्त मिलते हैं वहाँ पर प्रत्येक कार्य उनके अनुसार होता है। व्यवहारसे प्रेरक निमित्तोंके अनुसार कार्य होते हैं इसका यह तात्पर्य नहीं है कि गण-पर्यायरूप प्रत्येक उपादानभूत वस्तु अपने स्वचतुष्टयरूप स्वभावको छोड़कर व्यवहारसे प्रेरक निमित्तरूप परिणम जाती है। क्योंकि स्वका उपादान और अन्यका अपोहन करके रहना यह प्रत्येक वस्तुका वस्तुत्व है। किन्तु इसका यह तात्पर्य है कि उस समय व्यवहारसे प्रेरक निमित्तोंमें जिस प्रकारके कार्योंमें प्रेरक निमित्त होने की योग्यता होती है, कार्य उसी प्रकारके होते हैं, निश्चय उपादानके अनुसार नहीं होते। अकाल मरण या इसी प्रकारके जो दूसरे कार्य कहे गए हैं उनकी सार्थकता व्यवहारसे प्रेरक निमित्तोंका उक्त प्रकारसे कार्योंका होना मानने में ही है । आगम में अकालमरण, उदीरणा, अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण जैसे कार्योको स्थान इसी कारणसे दिया गया है। ५. व्यवहाराभासियोंके कथनका निरसन
यह ऐसे व्यवहाराभासियोंका कथन है जो किसी विशिष्ट प्रयोजन वश सम्यक नियतिका खण्डन करनेके लिए कटिबद्ध है । और जिन्होंने अपना लक्ष्य एकमात्र यही बना लिया है कि अपने उद्देश्यकी सिद्धिके लिए कहींपर आगमको गौण कर और कहींपर आगमके अर्थमें परिवर्तन कर आगमके नामपर अपने कथनको पुष्ट करते रहना है। ऐसा लिखकर वे जैन दर्शनसे कितने दूर जा रहे हैं या चले गए हैं इसका उन्हें रंचमात्र भी भय नहीं है ।
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