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२१८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
पात्र होता है। प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है ऐसी यथार्थ श्रद्धा होनेपर 'परका मैं कुछ भी कर सकता हैं' ऐसी कर्तृत्वबुद्धि तो छूट ही जाती है। साथ ही 'मैं अपनी आगे होनेवाली पर्यायोंमें कुछ भी फेर-फार कर सकता हूँ' इस अहंकारका भी लोप हो जाता है । उक्त कर्तृत्वबुद्धि छूटकर ज्ञाता-द्रष्टा बनने के लिए और अपने जीवनमें
प्रगट करने के लिए इस सिद्धान्तको स्वीकार करनेका बहत बड़ा महत्त्व है। जो महानुभाव समझते है कि इस सिद्धान्तके स्वीकार करनेसे अपने पुरुषार्थकी हानि होती है, वास्तव में उन्होंने इसे भीतरसे स्वीकार ही नहीं किया ऐसा कहना होगा । यह उस दीपकके समान है जो मार्गका दर्शन करानेमें निमित्त तो है पर मार्गपर स्वयं चला जाता है। इसलिए इसे स्वीकार करनेसे पुरुषार्थकी हानि होती है ऐसी खोटी श्रद्धाको छोड़कर इसके स्वीकार द्वारा मात्र ज्ञाता-द्रष्टा बने रहनेके लिए सम्यक पुरुषार्थको जागृत करना चाहिए । तीथंकरों और ज्ञानी सन्तोंका यही उपदेश है जो हितकारी जानकर स्वीकार करने योग्य है। श्रीमदराजचन्द्रजी कहते हैं
जो इच्छो परमार्थ तो करो सत्य पुरुषार्थ ।
भवस्थिति आदि नाम लई छेदो नहीं आत्मार्थ ॥ जो भवस्थिति (काललब्धि) का नाम लेकर सम्यक् पुरुषार्थ से विरत हैं उन्हें ध्यानमें रखकर यह दोहा कहा गया है। इसमें बतलाया है कि यदि तूं पुरुषार्थकी इच्छा करता है तो सम्यक् पुरुषार्थ कर । केवल काललब्धिका नाम लेकर आत्माका घात मत कर ।
प्रत्येक कार्यकी काललब्धि होती है इसमें सन्देह नहीं। पर वह किसी जीवको सम्यक् पुरुषार्थ करनेसे रोकती हो ऐसा नहीं है । स्वकाललब्धि और योग्यता ये दोनों उपादानगत विशेषताके ही दूसरे नाम हैं । व्यवहारसे अवश्य ही उस द्वारा विवक्षित कार्यके निमित्तभूत नियत कालका ग्रहण होता है। इसलिए जिस समय जिस कार्यका सम्यक पुरुषार्थ हआ वही उसकी काललब्धि है, इसके सिवाय अन्य कोई काललब्धि हो ऐसा नहीं है । इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर पण्डितप्रवर टोडरमल्लजी मोक्षमार्गप्रकाशक ( पृ० ४६२ ) में कहते हैं
इहाँ प्रश्न-जो मोक्षका उपाय काललब्धि आएँ भवितव्यतानुसारि बने है कि मोहादिकका उपशमादि भएँ बने है अथवा अपने पुरुषार्थतें उद्यम किए बने सो कहो। जो पहिले दोय कारण मिले बने है तौ हमकौं उपदेश काहैकौं दीजिए है। अर पुरुषार्थतें बने है तो उपदेश सर्व सुनि तिन विष के ई उपाय कर सकै, कोई न कर सकै सो कारण कहा ? ताका समाधान-एक कार्य होने विषे अनेक कारण मिलें हैं सो मोक्षका उपाय बने है। तहाँ तो पर्वोक्त तीनों हो कारण मिलै ही है। अर न बने है तहाँ तीनों ही कारण न मिले हैं। पूर्वोक्त तीन कारण कहे तिन विष काललब्धि वा होनहार तो किछु वस्तु नाहीं । जिस काल विषै कार्य बनै सोई काललब्धि और जो कार्य भया सोई होनहार । बहुरि कर्मका उपशमादि है सो पुद्गलकी शक्ति है। ताका आत्मा कर्ता हर्ता नाहीं । बहुरि पुरुषार्थ तें उद्यम करिए है सो यह आत्माका कार्य है। तातें आत्माकौं पुरुषार्थ करि उद्यम करनेका उपदेश दोजिए है। तहाँ यहु आत्मा जिस कारण तें कार्यसिद्धि अवश्य होय तिस कारणरूप उद्यम करे तहाँ तो अन्य कारण मिलैं ही मिलैं अर कार्यकी भी सिद्धि होय ही होय ।
वे आगे (पृ० ४६५ में) पुनः कहते हैं-- ... अर तत्त्व निर्णय करने विषै कोई कर्मका दोष है नाहीं। अर तू आप तो महंत रह्यौ चाहै अर अपना दोष कर्मादिककै लगावै सो जिन आज्ञा मानें तो ऐसी अनीति संभवे नाहीं । तोकौं विषय
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