________________
चतुर्थ खण्ड : २१७
इसका अर्थ करते हए पण्डितप्रवर जयचन्द्रजी छावड़ा लिखते हैं
जैसे सुवर्ण पाषाण है सो सौधनेंकी सामग्रीके सम्बन्ध करि शुद्ध सुवर्ण होय है तैसें काल आदि लब्धि जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप सामग्रीकी प्राप्ति ताकरि यह आत्मा कर्मके संयोगकरि अशुद्ध है सो ही परमात्मा होय है ॥२४॥ इसी तथ्यका समर्थन करते हुए स्वामी कार्तिकेय भी अपनी द्वादशानुप्रेक्षामें कहते हैं
कालाइलद्धिजुत्ता णाणासत्तीहिं संजुदा अत्था ।
परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेहूँ ।। इसका अर्थ पण्डित जयचन्दजी छावड़ाने इन शब्दोंमें किया है
सर्व ही पदार्थ काल आदि लब्धिकरि सहित भये नाना शक्तिसंयुक्त हैं तैसैं ही स्वयं परिणमै हैं तिनकू परिणमतै कोई निवारने' समर्थ नाहीं ॥२१९।। ।
इस विषयमें मान्य सिद्धान्त है कि ६ माह ८ समयमें ६०८ जीव मोक्ष जाते हैं और यह भी सुनिश्चित है कि अनन्तानन्त जीवराशिमेंसे युक्तानन्तप्रमाण जीवराशिको छोड़कर शेष जीवराशि भव्य है सो इस कथनसे भी उक्त तथ्य ही फलित होता है।
इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जानेपर भी, कि प्रत्येक कार्य अपने-अपने स्वकालमें अपनीअपनी योग्यतानुसार ही होता है, और जब जो कार्य होता है तब अन्य निमित्त भी तदनुकूल मिल जाते है, यहाँ यह विचारणीय हो जाता है कि प्रत्येक समयमें वह कार्य होता कैसे है ? क्या वह निश्चयसे स्वयं होता हुआ भी अन्य कोई कारण है जिसको निमित्तकर वह कार्य होता है ? विचार करनेपर विदित होता है कि वह इस साधन सामग्रीके मिलनेपर भी अपनी-अपनी परिणमनशक्तिके बलपर स्वकालमें ही होता है। यही कारण है कि जिन पाँच कारणोंका पूर्वमें उल्लेख कर आये हैं उनमें कालको भी परिगणित किया गया है। इसमें भी हम कार्योत्पत्तिका मुख्य साधन जो पुरुषार्थ है उसपर तो दृष्टिपात करें नहीं और हमारा जब जो होगा, होगा ही यह मान कर प्रमादी बन जाँय यह उचित नहीं है। सर्वत्र विचार इस बातका करना चाहिए कि यहाँ ऐसे सिद्धान्तका प्रतिपादन किस अभिप्रायसे किया गया है। वास्तवमें चारों अनुयोगोंका सार वीतरागता ही है, वसे विपर्यास करने के लिए सर्वत्र स्थान है।
उदाहरण स्वरूप प्रथमानुयोगको ही लीजिए। उसमें महापुरुषों की अतीत जीवन घटनाओंके समान भविष्यसम्बन्धी जीवन घटनाएँ भी अंकित की गई है। अब यदि कोई व्यक्ति उनकी भविष्यसम्बन्धी जीवन घटनाओंको पढे और कहे कि जैसे इन महापरुषोंकी भविष्य जीवन घटनाएँ सुनिश्चित रहीं उसी प्रकार हमारा भविष्य भी सुनिश्चित है, अतएव अब हमें कुछ भी नहीं करना है । जब जो होना होगा, होगा ही, तो क्या इस आधारसे उसका ऐसा विकल्प करना उचित कहा जायगा? यदि कहो कि इस आधारसे उसका ऐसा विकल्प करना उचित नहीं है । किन्तु उसे उन भविष्य सम्बन्धी जीवन घटनाओंको पढ़कर ऐसा निर्णय करना चाहिए कि जिस प्रकार ये महापुरुष अपनी अपनी हीन अवस्थासे पुरुषार्थ द्वारा उच्च अवस्थाको प्राप्त हए हैं उसी प्रकार हमें भी अपने पुरुषार्थ द्वारा अपने में उच्च अवस्था प्रकट करनी है। तो हम पूछते हैं कि फिर प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है इस सिद्धान्तको सुनकर उसका विपर्यास क्यों करते हो । वास्तवमें यह सिद्धान्त किसीको प्रमादी बनानेवाला नहीं है। जो इसका विपर्यास करता है वह प्रमादी बनकर संसारका पात्र होता है और जो इस सिद्वा तमें छिपे हुए रहस्य को जान लेता है वह परको कर्तृत-वृद्धिका त्याग कर पुरुषार्थ द्वारा स्वभाव सन्मुख हो मोक्षका
૨૮
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org