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चतुर्थ खण्ड : २२१
स्वतन्त्र सत्ताकी वस्तुएँ अनन्त है। उन्हें बुद्धिगम्य करके विविध दृष्टिकोणोंसे देखनेपर प्रत्येक वस्तू कैसी प्रतीतिमें आती है इसीका ख्यापन करते हुए परमागममें कहा है
जो तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है तथा जो नित्य है वही अनित्य है इस प्रकार एक ही वस्तुमें वस्तुत्वकी प्रतिष्ठा करनेवाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों के प्रकाशनका नाम अनेकान्त है। ५. चार युगलों की अपेक्षा अनेकान्तकी सिद्धि
यद्यपि जीवद्रव्य अनन्त हैं। पुद्गल द्रव्य उनसे भी अनन्तगुणे हैं। धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य प्रत्येक एक-एक हैं तथा कालद्रव्य लोकाकाशके जितने प्रदेश है तत्प्रमाण है। उनमेंसे यहाँ उदाहरणस्वरूपका एक जीव द्रव्यकी अपेक्षा विचार करते हैं । उसमें भी अनेकान्तके स्वरूपका ख्यापन करते समय जिन परस्पर विरुद्ध चार युगलों का निर्देश कर आये हैं उनको ध्यानमें रखकर क्रमसे मात्र आत्मतत्त्वका निरूपण करेंगे--
१. पहला युगल है-आत्मा तत्स्वरूप ही है और अतत्स्वरूप ही है, क्योंकि अन्तरंगमें अपने सहज ज्ञानस्वरूपके द्वारा तत्स्वरूप ही है और बाहर अनन्त ज्ञेयोंको जानता है इस अपेक्षा वह अतत्स्वरूप ही है।
२. दूसरा युगल है-आत्मा एक ही और अनेक ही है, क्योंकि सहप्रवृत्तमान गुण और क्रमशः प्रवृत्तमान पर्यायों स्वरूप अनन्त चैतन्यरूप अंशोंके समदायपने की अपेक्षा वह एक ही है और सहज ही अविभक्त एक द्रव्यमें व्याप्त सह प्रवृत्तमान गुण और क्रमशः प्रवृत्तमान पर्यायस्वरूप अनन्त चैतन्य अंशरूप पर्यायोंकी अपेक्षा वह अनेक ही है । यहाँ भेद-कल्पनामें गुणोंको पर्याय कहा गया है।
३. तीसरा युगल है--आत्मा सत् ही है और असत् ही है, क्योंकि वह अपने स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूपसे होने की शक्तिरूप स्वभाववाला है, इसलिये सत ही है और परद्रव्य क्षेत्र-काल-भावरूप न होनेकी शक्तिरूप स्वभाववाला है, इसलिये असत् ही है।
४. चौथा युगल है-आत्मा नित्य ही है और अनित्य ही है क्योंकि अनादि-निधन-अविभाग एकरस परिणत होने के कारण वह नित्य ही है और क्रमश प्रवर्तमान एक समयकी मर्यादावाले अनेक वृत्त्यंशरूपसे परिणत होनेके कारण वह अनित्य ही है।
इस प्रकार एक ही आत्मा तत् है और अतत् है. एक हैं और अनेक है, सत् है और असत् है तथा नित्य है और अनित्य है। इसलिये वह अनेकान्तस्वरूप है यह निश्चित होता है । इसी प्रकार जितना भी द्रव्यजात हैं उनमेंसे प्रत्येकको अनेकान्तस्वरूप घटित कर लेना चाहिये ।
शंका-श्री समयसार परमागममें आत्माको ज्ञानमात्र कहा गया है सो यदि आत्मद्रव्य ज्ञानमात्र होनेसे स्वयं ही अनेकान्तस्वरूप है तो फिर आत्मतत्त्वकी सिद्धिके लिए पृथक्से अनेकान्तकी प्ररूपणा क्यों की जाती है ?
समाधान--अज्ञानी जन आत्मतत्त्वको ज्ञानमात्र नहीं मानते, इसलिये आत्मतत्त्व ज्ञानमात्र है यह उपदेश दिया जाता है। वस्तुतः अनेकान्तके बिना ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वकी सिद्धि होना सम्भव नहीं है, इसलिए पृथक अनेकान्तकी प्ररूपणा की जाती है ।
शंका-जैसे प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मगर्भित एक वस्तु है वैसे ही आत्मा भी अनन्त धर्मगभित एक वस्तु है । फिर प्रकृतमें उसे ज्ञानमात्र क्यों बतलाया गया है।
समाधान--लक्ष्य-लक्षणमें अभेद करके आत्माको ज्ञानमात्र कहने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है। यद्यपि आत्मा भी अन्य द्रव्योंके समान अनन्तधर्मभित एक वस्तु है। किन्तु उसमें साधारण और असाधारण दोनों.
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