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चतुर्थ खण्ड : २२५ लक्षण सम्बन्ध है वही अन्य समस्त धर्मोंका भी है, इसलिये सम्बन्धकी अपेक्षा समस्त धर्मोकी एक वस्तुमें अभेदवृत्ति पाई जाती है। (५) गुणीसे सम्बन्ध रखनेवाला जो देश अस्तित्वका है वही देश अन्य समस्त धर्मो का है, इसलिये गुणिदेशकी अपेक्षा समस्त धर्मों की एक वस्तुमें अभेदवृत्ति बन जाती है। (६) जो उपकार अस्तित्वके द्वारा किया जाता है वही अनन्त धर्मो के द्वारा किया जाता है, इसलिये उपकारकी अपेक्षा एक वस्तुमें समस्त धर्मोकी अभेदवृत्ति बन जाती है। (७) एक वस्तुरूपसे अस्तित्वका जो ससर्ग है वही अनन्त धर्मोका है, इसलिये संसर्गकी अपेक्षा एक वस्तुमें समस्त धर्मोकी अभेदवृत्ति बन जातो है । (८) जिस प्रकार 'अस्ति' यह शब्द अस्तित्व धर्मरूप वस्तुका वाचक है उसी प्रकार वह अशेष धर्मात्मक वस्तुका भी वाचक है, इसलिये शब्दकी अपेक्षा एक वस्तुमें समस्त धर्मोंकी अभेदवृत्ति बन जाती है। यह सब व्यवस्था पर्यायार्थिक नयको गौणकर द्रव्यार्थिक नयकी मुख्यतासे बनती है ।
परन्तु पर्यायार्थिक नयकी प्रधानता रहनेपर अभेदवृत्ति सम्भव नहीं है। खुलासा इस प्रकार है--बात यह है कि पर्यायाथिक नयकी प्रधानता रहनेपर अभेदवृति सम्भव नहीं है, क्योंकि (१) इस नयकी विवक्षासे एक वस्तुमें एक समय अनेक धर्म सम्भव नहीं हैं । यदि एक कालमें अनेक धर्म स्वीकार भी किये जायें तो उन धर्मोंकी आधारभूत वस्तुमें भी भेद स्वीकार करना पड़ता है। (२) एक धर्मके साथ सम्बन्ध रखनेवाला जो वस्तुरूप है वह अन्यका नहीं हो सकता और जो अन्यसे सम्बन्ध रखनेवाला वस्तुरूप है वह उसका नहीं हो सकता । यदि ऐसा न माना जाय तो उन धर्मोमें भेद नहीं हो सकता । (३) एक धर्मका आश्रयभूत अर्थ भिन्न है और दूसरे धर्मका आश्रयभूत अर्थ भिन्न है । यदि धर्मभेदसे आश्रय भेद न माना जाय तो एक आश्रय होनेसे धर्मों में भेद नहीं रहेगा। (४) सम्बन्धीके भेदसे सम्बन्धमें भी भेद देखा जाता है, क्योंकि नाना सम्बन्धियोंकी अपेक्षा एक वस्तुमें एक सम्बन्ध नहीं बन सकता है। (५) अनेक उपकारियोंके द्वारा जो उपकार किये जाते हैं वे अलग-अलग होते हैं उन्हें एक नहीं माना जा सकता है (६) प्रत्येक धर्मका गुणिदेश भिन्न-भिन्न होता है वह एक नहीं हो सकता । यदि अनन्त धर्मोका एक गुणिदेश मान लिया जाय तो वे धर्म अनन्त न होकर एक हो जायेंगे । अथवा भिन्न-भिन्न वस्तुओंके धर्मोंका भी एक गुणिदेश हो जायगा। (७) अनेक संसर्गोकी अपेक्षा संसर्ग में भी भेद है, वह एक नहीं हो सकता। (८) तथा प्रतिपाद्य विषयके भेदसे प्रत्येक शब्द जुदाजुदा है। यदि सभी धर्मोको एक शब्दका वाच्य माना जायगा तो वाचकके अभेदसे उन वाच्यभूत धर्मोमें भी भेद नहीं रहेगा । इस प्रकार पर्यायष्टिसे विचार करनेपर कालादिकी अपेक्षा अर्थभेद स्वीकार किया जाता है। फिर भी उनमें अभेदका उपचार कर लिया जाता है । अत. इस विधिसे जिस वचन प्रयोगमें अभेदवृत्ति और अभेदोपचारकी विवक्षा रहती है वह वचन प्रयोग सकलादेश है यह निश्चित होता है। यद्यपि प्रमाण सप्तभंगीका प्रत्येक भंग सुनयवाक्य है, फिर भी वह प्रमाणाधीन है, क्योंकि उसके द्वारा अशेष वस्तु कही जाती है।
यह प्रमाण सप्तभंगीके दो भंगोंकी मीमांसा है। शेष पाँच भंगोंकी मीमांसा भी इसी विधिसे कर लेनी चाहिये । इन भंगोंको विशेष रूपसे समझने के लिये तत्त्वार्थवातिक अ०४के अन्तिम सूत्रवृत्तिपर दृष्टिपात करना चाहिये।
१० पूर्वोक्त विषयका सुबोध शैलीमें खुलासा
___यहाँ तक हमने शास्त्रीय दृष्टिसे अनेकान्तके स्वरूपका विचार किया। आगे उसपर सुबोध शैलीमें विशेष प्रकाश डाला जाता है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि जो वस्तु तत्स्वरूप हो वही अतत्स्वरूप कैसे हो सकती है, क्योंकि एक ही वस्तुको तत्-अतत् स्वरूप माननेपर विरोध दिखाई देता है। परन्तु विचारकर देखा जाय तो इसमें विरोधकी कोई बात नहीं है। खुलासा इस प्रकार है
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