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चतुर्थ खण्ड : २२९ ऐसी अवस्थामें घटन क्रियाका कर्तृभाव स्वात्मा है और अन्य परात्मा । यदि अन्यरूपसे भी घट कहा जाय तो पटादिसे भी घट व्यवहार होना चाहिए और इस तरह सभी पदार्थ एक शब्दके वाच्य हो जायेंगे । अथवा घटन क्रियाको करते समय भी वह अघट होवे तो घट व्यवहारकी निवृत्ति हो जायगी।
९. घट शब्दके प्रयोगके बाद उत्पन्न हुआ घटरूप उपयोग स्वात्मा है, क्योंकि वह अन्तरंग है और अहेय है तथा बाह्य घटाकार परात्मा है, क्योंकि उसके अभावमें भी घटव्यवहार देखा जाता है । वह उपयोगाकारसे है अन्य रूपसे नहीं। यदि घट उपयोगाकारसे भी न हो तो वक्ता और श्रोताके उपयोगरूप घटाकारका अभाव हो जानेसे उसके आश्रयसे होनेवाला व्यवहार लुप्त हो जायगा । अथवा इतररूपसे भी यदि घट होवे तो पटादिको भी घटत्वका प्रसंग आ जायगा ।
१०. चैतन्यशक्तिके दो आकार होते हैं-ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार । प्रतिबिम्बसे रहित दर्पणके समान ज्ञानाकार होता है और प्रतिबिम्बयुक्त दर्पणके समान ज्ञयाकार होता है। उसमें घटरूप ज्ञेयाकार स्वात्मा है, क्योंकि इसीके आश्रयसे घट व्यवहार होता है और ज्ञानाकार परात्मा है, क्योंकि वह सर्वसाधारण है । यदि ज्ञानाकारसे घट माना जाय ता पटादि ज्ञानके कालमें भी ज्ञानाकारका सन्निधान होनेसे घटव्यवहार होने लगेगा और यदि घटरूप ज्ञेयाकारके कालमें घट नास्तित्वरूप माना जाय तो उसके आश्रयसे इतिकर्तव्यताका लोप हो जायगा ।
यह एक ही पदार्थमें एक कालमें नयभेदसे सत्त्वधर्म और असत्त्वधर्मकी व्यवस्था है। आशय यह कि प्रत्येक पदार्थमें जब जो धर्म विवक्षित होता है तब उसकी अपेक्षा वह अस्तित्वरूप होता है और तदितर अन्य धर्मोंकी अपेक्षा वह नास्तित्वरूप होता है। अस्तित्व धर्मका नास्तित्व धर्म अविनाभावी है, इसलिए जहाँ किसी एक विवक्षासे अस्तित्व घटित किया जाता है वहाँ तद्धिन्न अन्य विवक्षासे नास्तित्व धर्म होता ही है। न तो केवल अस्तित्व ही वस्तुका स्वरूप है और न केवल नास्तित्व ही। सत्ताका लक्षण करते हुए आचार्यों ने उसे सप्रतिपक्ष कहा है वह इसी अभिप्रायसे कहा है।
. उदाहरणार्थ जब हम किसी विवक्षित मनुष्यको नाम लेकर बुलाते हैं तो उसमें उससे भिन्न अन्य मनुष्योंको बुलानेका निषेध गर्भित रहता ही है। या जैसे हम किसी विवक्षित पर्यायके ऊपर दष्टि डालते हैं तो उसमें तद्भिन पर्यायोंका अभाव गर्भित रहता हो है। या जब हम किसीके भव्य होनेका निर्णय करते है तो उसमें अभव्यताका अभाव गभित है ही। इसलिए कहीं पर मात्र विधिद्वारा किसी धर्म विशेषका सत्त्व स्वीकार किया गया हो तो उसमें तदितरका अभाव गभित ही है ऐसा समझना चाहिए। एक वस्तु में विवक्षित धर्मकी अपेक्षासे अस्तित्व और अन्यकी अपेक्षासे नास्तित्व यही अनेकान्त है । इससे विवक्षित वस्तूमें धर्मविशेषकी प्रतिष्ठा होकर उसमें अन्यका उस रूपसे होनेका निषेध हो जाता है। यहाँ जिस प्रकार सदसत्त्वकी अपेक्षा अनेकान्तका निर्देश किया है उसी प्रकार तदतत्त्व, एकानेकत्व और भेदाभेदत्व आदिकी अपेक्षा भी उसका निर्देश कर लेना चाहिए। इस विषयको स्पष्ट करते हुए नाटकसमयसारके स्याद्वाद अधिकारमें पण्डितप्रवर बनारसीदासजी कहते है
द्रव्य क्षेत्र काल भाव चारों भेद वस्तु ही में अपने चतुष्क वस्तु अस्तिरूप मानिये । परके चतुष्क वस्तु न अस्ति नियत अंग ताको भेद द्रव्य परयाय मध्य जानिये ।। दरव जो वस्तु क्षेत्र सत्ताभूमि काल चाल स्वभाव सहज मूल सकति बखानिये ।
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