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२२८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
उसपर मौलिक प्रकाश पड़ता है, इसलिए यहाँपर घटका स्वात्मा क्या और परात्मा क्या इसका विविध दृष्टियोंसे ऊहापोह करना इष्ट समझकर तत्त्वार्थवार्तिक, (अ० १, सूत्र ६) में इस सम्बन्धमें जो कुछ भी कहा गया है उसके भावको यहाँ उपस्थित करते हैं
. १. जो घट बुद्धि और घट शब्दकी प्रवृत्तिका हेतु है वह स्वात्मा है और जिसमें घट बुद्धि और घट शब्दकी प्रवृत्ति नहीं होती वह परात्मा है । घट स्वात्माकी दृष्टिसे अस्तित्वरूप है और परात्माकी दृष्टिसे नास्तित्वरूप है।
२. नामघट, स्थापनाघट, द्रव्यघट और भावघट इनमेंसे जब जो विवक्षित हो वह स्वात्मा और तदितर परात्मा । यदि उस समय विवक्षितके समान इतररूपसे भी घट माना जाय या इतर रूपसे जिस प्रकार वह अघट है उसी प्रकार विवक्षित रूपसे भी वह अघट माना जाय तो नामादि व्यवहारके उच्छेदका प्रसंग आता है।
३. घट शब्दके वाच्य समान धर्मवाले अनेक घटोंमेंसे विवक्षित घटके ग्रहण करने पर जो प्रतिनियत आकार आदि है वह स्वात्मा और उससे भिन्न अन्य परात्मा । यदि इतर घटोंके आकारसे वह घट अस्तित्व रूप हो जाय तो सभी घट एक घटरूप हो जायेंगे और ऐसी अवस्थामें सामान्यके आश्रयसे होनेवाले व्यवहारका लोप ही हो जायगा।
४. द्रव्यार्थिकदृष्टिसे अनेक क्षणस्थायी घटमें जो पूर्वकालीन कुशूलपर्यन्त अवस्थायें होती हैं वे और जो उत्तरकाल न कपालादि अवस्थायें होती हैं वे सब परात्मा और उनके मध्यमें अवस्थित घटपर्याय स्वात्मा । मध्यवर्ती अवस्थारूपसे वह घट है, क्योंकि घटके गुण-क्रिया आदि उसी अवस्थामें होते हैं। यदि कुशलान्त और कपालादिरूपसे भी घट होवे तो घट अवस्थामें भी उनकी उपलब्धि होनी चाहिए । और ऐसी अवस्थामें घटकी उत्पत्ति और विनाशके लिए जो प्रयत्न किया जाता है उसके अभावका प्रसंग आता है। इतना ही क्यों, यदि अन्तरालवर्ती अवस्थारूपसे भी वह अघट हो जावे तो घटकार्य और उससे होनेवाले फलकी प्राप्ति नहीं होनी चाहिये ।
५. उस मध्य कालवर्ती घटस्वरूप व्यञ्जनपर्यायमें भी घट प्रति समय उपचय और अपचयरूप होता रहता है, अतः ऋजुसूत्रनयको दृष्टिसे एक क्षणवर्ती घट ही स्वात्मा है और उसी घटकी अतीत और अनागत पर्याय परात्मा हैं । यदि प्रत्युपन्न क्षणकी तरह अतीत और अनागत क्षणों से भी घटका अस्तित्व माना जाय तो सभी घट वर्तमान क्षणमात्र हो जायेंगे । या अतीत अनागतके समान वर्तमान क्षणरूपसे भी असत्त्व माना जाय तो घटके आश्रयसे होनेवाले व्यवहारका ही लोप हो जायगा।
६. अनेक रूपादिके समुच्चयरूप उसी वर्तमान घटमें पृथुबुध्नोदराकारसे घट अस्तित्वरूप है, अन्यरूपसे नहीं; क्योंकि उक्त आकारसे ही घट व्यवहार होता है, अन्यसे नहीं। यदि उक्त आकारसे घट न होवे तो उसका अभाव ही हो जायगा और अन्य आकारसे रहित पदार्थोमें भी घटव्यवहार होने लगेगा।
७. रूपादिके सन्निवेशविशेषका नाम संस्थान है। उसमें चक्षुसे घट-ग्रहण होने पर रूपमुखसे घटका ग्रहण हुआ इसलिए रूप स्वात्मा है और रसादि परात्मा हैं। वह घट रूपसे अस्तित्वरूप है और रसादिरूपसे नास्तित्वरूप है । जब चक्षुसे घटको ग्रहण करते हैं तब यदि रसादि भी घट है ऐसा ग्रहण हो जाय तो रसादि भी चक्षुग्राह्य होनसे रूप हो जायेंगे और ऐसी अवस्थामें अन्य इन्द्रियों की कल्पना ही निरर्थक हो जायगी । अथवा चक्षु इन्द्रिय से रूप भी घट है ऐसा ग्रहण न होवे तो वह चक्षु इन्द्रियका विषय ही न ठहरेगा।
८. शब्दभेदसे अर्थभेद होता है, अतः घट, कुट आदि शब्दोंका अलग अलग अर्थ होगा। जो घटनक्रियासे परिणत होगा वह घट कहलायेगा और जो कुटिलरूप क्रियासे परिणत होगा वह कुट कहलायेगा।
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