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२४० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
ज्ञायक भावरूप है अन्य रूप नहीं ।' आचार्य अमृतचन्द्रने आत्माको ज्ञायकभावरूप माननेपर अनेकान्तकी सिद्धि किस प्रकार होती है इसका निर्देश करते हुए लिखा है
तत्स्वात्मवस्तुनो ज्ञानमात्रत्वेऽप्यन्तश्चकचकायमानज्ञानस्वरूपेण तत्त्वात् बहिरुन्मिषदनन्तज्ञेयतापन्नस्वरूपातिरिक्तपररूपेणातत्त्वात् सहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशसमुदयरू विभागद्रव्येणैकत्वात् अविभागकद्रव्यव्याप्तसहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशरूपपर्यायरनेकत्वात् स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावभवनशक्ति-स्वभावत्वेन सत्त्वात् परद्रव्यक्षेत्र-काल-भाव भवनशक्तिस्वभाववत्त्वेनासत्त्वात् अनादिनिधनाविभागैकवृत्तिपरिणतत्वेन नित्यत्वात् क्रमप्रवृत्तकसमयावच्छिन्नानेकवृत्त्यंशपरिणतत्वेनानित्यत्वात्तदतत्त्वमेकानेकत्वं सदसत्त्वं नित्यानित्यत्वं च प्रकाशत एव ।।
आत्माके ज्ञानमात्र होनेपर भी भीतर प्रकाशमान ज्ञानरूपसे तत्पना है और बाहर प्रकाशित होते हुए अनन्त ज्ञेयरूप आकारसे भिन्न पररूपसे अतत्पना है । सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनन्त चैतन्य अंशोंके समुदायरूप अविभागी द्रव्यकी अपेक्षा एकगना है और अविभागी एक द्रव्यमें व्याप्त हुए सदप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनन्त चैतन्य-अंशरूप पर्यायोंकी अपेक्षा अनेकपना है। स्वद्र व्य, क्षेत्र, काल और भावरूप होनेकी शक्तिरूप स्वभाववाला होनेसे सत्पना है और परद्रव्य, क्षेत्र काल और भावरूप नहीं होनेकी शक्तिरूप स्वभाववाला होनेसे असत्पना है तथा अनादिनिधन अविभागी एक वृत्तिरूपसे परिणत होने के कारण नित्यपना है और क्रमशः प्रवर्तमान एक समयवर्ती अनेक बृत्त्यंशरूपसे परिणत होने के कारण अनित्यपना है, इसलिए ज्ञानमात्र आत्मवस्तुको स्वीकार करनेपर तत-अतत्पना, एक-अनेकपना, सदसत्पना और नित्यानित्यपना स्वयं प्रकाशित होता ही है।
अतएव अनेकान्त के विचारके प्रसंगसे मोक्षमार्गमें निश्चयनयके विषयको आश्रय करने योग्य माननेपर एकान्तका दोष कैसे नहीं आता इसका विचार किया। इसके विपरीत जो बन्धु अनेकान्तको एक वस्तुके स्वरूपमें घटित न करके 'भव्य भी हैं और अभव्य भी हैं' इत्यादि रूपसे या कुछ पर्यायें अमुक कालमें अमुकरूप हैं और कुछ पर्यायें तद्भिन्न दसरे कालमें दूसरेरूप है' इत्यादि रूपसे अनेकान्तको घटित करते हैं उन्हें अनेकान्तको शब्द श्रुतमें बाँधनेवाली स्याद्वादकी अंगभूत सप्तभंगीका यह लक्षण ध्यानमें ले लेना चाहिये ।
प्रश्नवशादेक स्मिन् वस्तुन्यवरोधेन विधि-प्रतिषधकल्पना सप्तभंगी। प्रश्नके अनुसार एक वस्तुमें प्रमाणसे अविद्ध विधि और प्रतिषेधरूप धर्मोकी कल्पना सप्तभंगी है।
सप्तभंगीमें प्रथम भंग विधिरूप होता है और दुसरा भंग निषेधरूप होता है । विधि अर्थात् द्रव्याथिक तथा प्रतिषेध्य अर्थात् पर्यायाथिक । आचार्य कुन्दकुन्दने द्रव्याथिकको प्रतिषेधक और व्यवहारको प्रतिषेध्य इसी अभिप्रायसे लिखा है। जिस दृष्टिमें भेदव्यवहार है उसके आश्रयसे बन्ध है और जिसमें भेदव्यवहारका लोप है या अभेदवृत्ति है उसके आश्रयसे बन्धका अभाव है यह उनके उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार अनेकान्त और उसे वचनव्यवहारका रूप देनेवाला स्याद्वाद है। उसकी संक्षेपमें मीमांसा की।
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