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२२६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
यहाँपर वस्तुको जिस अपेक्षासे तत्स्वरूप स्वीकार किया है उसी अपेक्षासे उसे अतत्स्वरूप नहीं स्वीकार किया है। उदाहरणार्थ एक ही व्यक्ति अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र है और अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता है. इसलिए जिस प्रकार एक ही व्यक्तिमें भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे पितत्व और पुत्रत्व आदि विविध धर्मोका सद्भाव बन जाता है उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ द्रव्याथिक दृष्टिसे तत्स्वरूप है, क्योंकि अनन्तकाल पहले वह जितना और जैसा था उतना और वैसा ही वर्तमानकालमें भी दृष्टिगोचर होता है और वर्तमानकालमें वह जितना और जैसा है उतना और वैसा ही वह अनन्तकाल तक बना रहेगा। उसमेंसे कोई एक प्रदेश या गुण खिसक जाता हो और उसका स्थान कोई अन्य प्रदेश या गण ले लेता हो ऐसा नहीं है, इसलिए तो वह सदाकाल तत्स्वरूप
किन्तु इस प्रकार उसके तत्स्वरूप सिद्ध होनेपर भी पर्यायरूपसे भी वह नहीं बदलता हो ऐसा नहीं है,
बते हैं कि जो बालक जन्मके समय होता है। कालान्तरमें वह वही होकर भी अन्य रूप भी हो जाता है, अन्यथा उसमें बालक, युवा और वृद्ध इत्यादिरूपसे विविध अवस्थाएँ दृष्टिगोचर नहीं हो सकतीं, इसलिए विवक्षाभेदसे तत् और अतत् इन दोनों धर्मोंको एक ही वस्तुमें स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं आती। मात्र अन्वयको स्वीकार करनेवाले द्रव्याथिकनयकी दृष्टिसे विचार करनेपर तो प्रत्येक पदार्थ हमें तत्स्वरूप ही प्रतीत होता है और उसी पदार्थको व्यतिरेकको स्वीकार करनेवाले पर्यायाथिकनयकी दृष्टिसे देखनेपर वह मात्र अतत्स्वरूप ही प्रतीत होता है। इसलिए प्रत्येक पदार्थ द्रव्याथिकनयसे तत्स्वरूप ही है और पर्यायाथिकनयसे अतत्स्वरूप ही है।
इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ सत् भी है और असत् भी है। प्रत्येक पदार्थ स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावरूपसे अस्तिरूप ही है, इसलिए तो वह सत् ही है और उसमें परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावका सर्वथा अभाव है इसलिए इस दृष्टिसे वह असत् ही है। प्रत्येक पदार्थकी नित्यानित्यता और एकानेकता इसी प्रकार साध लेनी चाहिये, क्योंकि जब हम किसी पदार्थका द्रव्यदृष्टिसे अवलोकन करते हैं तो वह जहाँ हमें एक ओर नित्य प्रतीत होता है वहाँ उसे पर्यायदृष्टिसे देखनेपर उसमें अनेकता और अनित्यता भी प्रमाणित होती है।
शास्त्रोंमें प्रकृत विषयको पुष्ट करनेके लिए अनेक उदाहरण दिये गये हैं। विचार करनेपर विदित होता है कि प्रत्येक द्रव्य एक अखण्ड पदार्थ है। इस दृष्टिसे उसका विचार करनेपर उसमें द्रव्यभेद, क्षेत्रभेद, कालभेद और भावभेद सम्भव नहीं है, अन्यथा वह अखण्ड एक पदार्थ नहीं हो सकता, इसलिए द्रव्यार्थिकदृष्टि (अभेददृष्टि) से उसका अवलोकन करनेपर वह तत्वस्वरूप, एक, नित्य और अस्तिरूप ही प्रतीतिमें आता है। किन्तु जब उसका नाना अवयव, अवयवोंका पृथक्-पृथक क्षेत्र, प्रत्येक समयमें होनेवाला उनका परिणामलक्षण स्वकाल और उसके रूप-रसादि या ज्ञान दर्शनादि विविध भाव इन सबकी दृष्टिसे विचार करते हैं तो वह एक अखण्ड पदार्थ अतत्त्वरूप, अनेक, अनित्य और नास्तिरूप ही प्रतीतिमें आता है।
प्रत्येक पदार्थ तद्धिन्न अन्य अनन्त पदार्थोंसे पृथक होनेके कारण उसमें उन अनन्त पदार्थोका अत्यन्ताभाव है यह तो स्पष्ट है ही, अन्यथा उसका स्वद्रव्यादिकी अपेक्षा स्वरूपास्तित्व आदि ही सिद्ध नहीं हो सकता और न उन अनन्त पदार्थों में अपने-अपने द्रव्यादिकी अपेक्षा भेदक रेखा ही खींची जा सकती है। आचार्य समन्तभद्र ने अत्यन्ताभावके नहीं माननेपर किसी भी द्रव्यका विवक्षित द्रव्यादिरूपसे व्यपदेश करना सम्भव नहीं है यह जो आपत्ति दी है वह इसी अभिप्रायको ध्यानमें रख कर ही दी है। साथ ही गुण-पर्यायोंके किंचित् मिलित स्वभावरूप वह स्वयं ही एक है और एक नहीं है, नित्य है और नित्य नहीं है, तत्स्वरूप है और
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