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चतुर्य खण्ड : २२३ ७. सकलादेशकी अपेक्षा ऊहापोह
जिस समय एक वस्तु अखण्डरूपसे विवक्षित होती है उस समय वह अस्तित्वादि धर्मोंकी अभेदवृत्ति या अभेदोपचार करके पूरीको पूरो एक शब्द द्वारा कही जाती है। इसी का नाम सकलादेश है, क्योंकि द्रव्यार्थिक नयसे सभी धर्मों में अभेदवत्ति घटित हो जानेसे अभेद है तथा पर्यायाथिक नयसे प्रत्येक धर्ममें दूसरे धर्मोसे भेद होने पर भी अभेदोपचार कर लिया जाता है। जिसे स्याद्वाद कहते हैं उसमें इस दष्टिसे प्रत्येक भंग समग्र वस्तुको कहनेवाला माना जाता है इसीको आगे सप्तभंगीके द्वारा स्पष्ट करते हैं८. सप्तभंगीका स्वरूप और उसमें प्रत्येक भंग की सार्थकता
सप्तभंगीका कहनेसे इसके अन्तर्गत सात भंगोंका बोध होता है । वे हैं-(१) स्यात् है ही जीव, (२) स्यात् नहीं ही है जीव, (३) स्यात् अवक्तव्य ही है जीव, (४) स्यात् है और नहीं है जीव, (५) स्यात् है और अवक्तव्य है जीव, (६) स्यात नहीं है और अवक्तव्य है जीव तथा (७) स्यात है, नहीं है और अवक्तव्य है जीव ।
प्रश्नके वश होकर एक वस्तुमें अविरोधपूर्वक विधि-प्रतिषेध कल्पनाका नाम सप्तभंगी है। किसी वस्तुको जाननेके लिए जिज्ञासा सात प्रकारको होती है, इसलिए एक सप्तभंगीमें भंग भी सात ही होते है। ये भंग पूर्वमें दिये ही हैं।
शंका-उक्त सात भंगोंमें यदि 'स्यादस्त्येव जीवः' यह भंग सकलादेशी है तो इसी एक भंगसे जीवद्रव्यके सभी धर्मोंका संग्रह हो जाता है, इसलिये आगेके सभी भंग निरर्थक हैं ?
समाधान-गौण और मुख्य विवक्षासे सभी भङ्ग सार्थक हैं। द्रव्याथिक नयकी प्रधानता और पर्यायाथिक नयकी गौणतामें प्रथम भङ्ग सार्थक हैं। तथा पर्यायाथिक नयकी मुख्यता और द्रव्याथिकनयकी गौणतामें दूसरा भङ्ग सार्थक है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि यहाँ प्रधानता केवल शब्द प्रयोगकी है। वैसे प्रमाण सप्तभंगीकी अपेक्षा वस्तु तो प्रत्येक भंगमें पूरी ही ग्रहण की जाती है। जो शब्दसे कहा नहीं गया है अर्थात् गम्य हुआ है वह प्रकृतमें अप्रधान है । तृतीय भंगमें कहने की युगपत् विवक्षा होनेसे दोनों ही अप्रधान हो जाते हैं, क्योंकि दोनोंको एक साथ प्रधानभावसे कहनेवाला कोई शब्द नहीं है। चौथे भंगमें क्रमशः उभय धर्म प्रधान होते हैं । इसी सरणिसे आगेके तीन भंगोंका विचार कर लेना चाहिये। ८. प्रत्येक भंगमें 'अस्ति' आदि पदोंको सार्थकता
_ 'स्थादस्त्येव जीवः' इस वाक्यमें 'जीव'पद विशेष्य है-द्रव्यवाची है और 'अस्ति' पद विशेषण हैगुणवाची है । उसमें परस्पर विशेषण विशेष्यभाव है इसके द्योतनके लिये 'एव' पदका प्रयोग किया गया है। इससे इतर धर्मोकी निवृत्तिका प्रसंग प्राप्त होनेपर उन धर्मोके सद्भाव को द्योतन करनेके लिए उक्त वाक्यमें 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया गया है। यहाँ 'स्यात्' तिङन्तप्रतिरूपक निपात है। प्रकृतमें इसका अर्थ अनेकान्त लिया गया है।
शंका-जब कि 'स्यात्' पदसे ही अनेकान्तका द्योतन हो जाता है तो फिर 'अस्त्येव जीवः' या 'नास्त्येव जीवः' इत्यादि पदोंके प्रयोगकी कोई सार्थकता नहीं रह जाती है ?
समाधान-माना कि 'स्यात्' पदये अनेकान्तका द्योतन हो जाता है फिर भी विशेषार्थी विशेष शब्दोंका प्रयोग करते हैं । जैसे जीव कहनेसे मनुष्यादि सभीका ग्रहण हो जाता है, फिर भी विवक्षित पर्यायविशिष्ट जीवको जाननेवाला उस-उस शब्दका प्रयोग करता है। इसलिये पूर्वोक्त कोई दोष नहीं है ।
एक बात और है । वह यह कि यद्यपि 'स्यात्' पद अनेकान्तका द्योतक होता है और जो द्योतक होता है वह किसी वाचक शब्दके द्वारा कहे गये अर्थको ही अनेकान्तरूप द्योतन करता है, अतः वाचक द्वारा प्रकाश्य धर्मकी सूचनाके लिये इतर शब्दोंका प्रयोग किया जाता है। बात यह है कि जब हम किसी विवक्षित धर्मके
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