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अनेकान्त और स्याद्वाद
'अनेकान्त' शब्द अनेक और अन्त इन दो शब्दोंके मेलसे बना है। उसका सामान्य अर्थ है-अनेके अन्ताः धर्मा यस्यासौ अनेकान्तः । जिसमें अनेक अन्त अर्थात् धर्म पाये जाते हैं उसे अनेकान्त कहते हैं । जो भी जीवादि पदार्थ हैं वे सब अनेकान्तस्वरूप हैं यह इस कथनका तात्पर्य है। जो कोई पदार्थ अस्तिरूप है वह प्रत् क त्रैकालिक होनेके साथ अर्थक्रियाकारी भी है। और वह तभी उक्त विधिसे अर्थक्रियाकारी बन सकता है जब उसे अनेकान्तस्वरूप स्वीकार किया जाय । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए स्वामी कार्तिकेय स्वरचित द्वादशानुप्रेक्षामें कहते हैं
जं वत्थु अणेयंतं तं चिय कज्जं करेदि णियमेण ।
बहुधम्मजुदं अत्थं कज्जकरं दीसदे लोए ।। २२५ ॥ जो वस्तु अनेकान्त स्वरूप है वही नियमसे कार्य करने में समर्थ है, क्योंकि लोकमें बहत धर्मवाला अर्थ ही कार्यकारी देखा जाता है ॥२२५।। . शंका-वस्तु बहुत धर्मोंवाली होती है इसका क्या अर्थ है ? जैसे जीव द्रव्य लीजिये । वह दर्शन, ज्ञान, चारित्र, सुख और वीर्य आदि अनन्त धर्मोंवाला है या अस्तित्व, वस्तुत्व आदि अनन्त धर्मोवाला है। इस प्रकार वस्तु बहुत धर्मोवाली है, अनेकान्तका क्या यह अर्थ लिया जाय या इसका कोई दूसरा अर्थ है ।
समाधान-विचार कर देखा जाय तो प्रत्येक वस्तु केवल उक्त विधिसे ही अनेकान्तस्वरूप नहीं स्वीकार की गई है । किन्तु प्रर क वस्तुको अनेकान्तस्वरूप स्वीकार करनेका प्रयोजन ही दूसरा है। बात यह है कि प्रत्येक वस्तुका स्वरूप क्या है इसे स्पष्ट करते हुए जैनदर्शनमें यह स्पष्ट किया गया है कि प्रत्येक वस्तु जैसे स्वद्रव्यादिकी अगेक्षा अस्तिस्वरूप है वैसे वह परद्र यादिकी अपेक्षा अस्तिस्वरूप नहीं है, क्योंकि एक द्रव्यमें अन्य सजातीय और विजातीय अन्य द्रव्योंका अत्यन्ताभाव है। यदि ऐसा स्वीकार न किया जाय तो न तो प्रत्येक द्रव्यका स्वतन्त्र अस्तित्व ही सिद्ध होता है और न ही प्रत्येक जीवकी बन्ध-मोक्ष व्यवस्था हो बन सकती है । यह तो है ही, इसके साथ ही एक वस्तुमें भी धर्मी और अनन्त धर्मोंकी अपेक्षा विचार करनेपर उनमेंसे भी प्रत्येकका अपने-अपने विवक्षित स्वरूपादिकी अपेक्षा स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है, क्योंकि जैसे प्रत्येक धर्मी स्वरूपसे सत् है वैसे ही गुण-पर्याय रूप प्रत्येक धर्म भी स्वरूपसे सत् हैं । कोई किसीके कारण स्वरूपसत् हो ऐसा नहीं है । जैनदर्शनमें स्वरूपसे सत् और पररूपसे असत् इत्यादि तथ्यको स्वीकार कर जो अनेकान्तकी प्रतिष्ठा है उसका प्रमुख कारण यही है। भेदविज्ञान जैनदर्शनका प्राण है, इसलिये उक्त विधिसे अनेकान्तको हृदयंगम करनेपर ही भेदविज्ञानमें निपुणता प्राप्त होना सम्भव है, अन्य प्रकारसे नहीं । उदाहरणार्थ जब यह कहा जाता है कि रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है तब उसका अर्थ होता है कि रत्नत्रयको छोड़कर अन्य कोई मोक्षमार्ग नहीं है । इसे और खुलासा कर समझा जाय तो यह कहा जायगा कि यद्यपि जीव वस्तु अनन्त धर्मगर्भित एक पदार्थ है, परन्तु उसमें भी मोक्षमार्गता मात्र रत्नत्रयपरिणत आत्मामें ही घटित होती है, अन्य अनन्त धर्मपरिणत आत्मामें नहीं । इस प्रकार विविध दृष्टिकोणोंसे देखनेपर एक ही वस्तु कैसे अनेकान्तस्वरूप है यह स्पष्ट हो जाता है, इसलिये उसके स्वरूपका ख्यापन करते हुए समयसार आत्मख्याति टीकामें कहा भी है
तत्र यदेव तत् तदेव अतत् यदेवेकं तदेवानेकं यदेव सत् तदेव असत् यदेव नित्यं तदेव अनित्यं इत्येकस्मिन् वस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः।
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