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२१६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
यहाँ पर यह शंका की जा सकती है कि जब वहीं पर भद्राकलंकदेवने कालनियमका निषेध कर दिया है तब उनके पूर्व वचनको कालनियमके समर्थनमें क्यों उपस्थित किया जाता है। कालनियमका निषेधपरक उनका वह वचन इस प्रकार है. कालानियमाच्च निर्जरायाः । ९ । यतो न भव्यानां कृत्स्नकर्मनिर्जरापूर्वकमोक्षकालस्य नियमोऽस्ति । केचिद् भव्याः संख्येन कालेन सेत्स्यन्ति केचिदसंख्येन, केचिदन्तेन, अपरे अनन्तानन्तेनापि न सेत्स्यन्तीति, ततश्च न यक्तं 'भवस्य कालेन निःश्रेयसोपपत्तेः इति ।।
इस वार्तिक और उसकी टीकाका आशय यह है कि यतः भव्योंके समस्त कर्मोकी निर्जरापूर्वक मोक्षकालका नियम नहीं है, क्योंकि कितने ही भव्य संख्यात काल द्वारा मोक्ष लाभ करेंगे। कितने ही असंख्यात काल द्वारा और कितने ही अनन्त काल द्वारा मोक्ष लाभ करेंगे। दूसरे जीव अनन्तानन्त काल द्वारा भी मोक्षलाभ नहीं करेंगे। इसलिए 'भव्य जीव काल द्वारा मोक्ष लाभ करेंगे' यह वचन ठीक नहीं है ।
व्यवहाराभासी इसे पढ़कर उस परसे ऐसा अर्थ फलित करते हैं कि भट्टाकलंकदेवने प्रत्येक भव्य जीवके मक्ष जानेके कालनियमका पहले शंकारूपमें जो विधान किया था उसका इस कथन द्वारा सर्वथा निषेध कर दिया है। परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। यह सच है कि उन्होंने पिछले कथनका इस कथन द्वारा निषेध किया है । परन्तु उन्होंने यह निषेध नयविशेषका आश्रय लेकर ही किया है, सर्वथा नहीं। वह नयविशेष यह है कि पूर्वोक्त कथन एक जीवके आश्रयसे किया गया है और यह कथन नाना जीवोंके आश्रयसे किया गया है । सब भव्य जीवोंको अपेक्षा देखा जाय तो सबके मोक्ष जानेका एक कालनियम नहीं बनता, क्योंकि दूर भव्योंको छोड़कर प्रत्येक भव्य जीवके मोक्ष जानेका कालनियम अलग-अलग है, इसलिए सबका एक कालनियम कैसे बन सकता है ? परन्तु इसका यदि कोई यह अर्थ लगावे कि प्रत्येक भव्य जीवका भी मोक्ष जानेका कालनियम नहीं है तो उसका उक्त कथन द्वारा यह अर्थ फलित करना उक्त कथनके अभिप्रायको ही न समझना कहा जायगा। अतः प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि भट्टाकलंकदेव भी प्रत्येक भव्य जीवके मोक्ष जानेका काल नियम मानते हैं।
इसी बातका समर्थन करते हुए पंचास्तिकाय गाथा ११ को टीकामें भी कहा है :
....."यदा तु द्रव्यगुणत्वेन पर्यायमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा प्रादुर्भवति विनश्यति । सत्पर्यायजातमतिवाहितस्वका'मुच्छिनत्ति, असदुवस्थितस्वकालमुत्पादयति चेति ।
"और जब प्रत्येक द्रव्य द्रव्यको गौणता और पर्यायको मुख्यतासे विवक्षित होता है तब वह उपजता है और विनाशको प्राप्त होता है। जिसका स्वकाल बीत गया है ऐसे सत् (विद्यमान) पर्यायसमूहको नष्ट करता है और जिसका स्वकाल उपस्थित है ऐसे असत् (अविद्यमान) पर्यायसनहको उत्पन्न करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
इस प्रकार इस कथनसे भी यही विदित होता है कि प्रत्येक कार्य अपने-अपने स्वकालके प्राप्त होनेपर ही होता है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि स्वकालके प्राप्त होनेपर वह व्यवहारसे अपने आप हो जाता है। इम अपेक्षा होता तो है वह स्वभाव आदि पाँचके समवायसे ही । पर जिस कार्यका जो स्वकाल है उसके प्राप्त होनेपर ही इन पाँचका समवाय होता है और तभी वह कार्य होता है ऐसा यहाँपर समझना चाहिए ।
आचार्य कुन्दकुन्द मोक्षपाहुडमें कालादिलब्धिके प्राप्त होनेपर आत्मा परमात्मा हो जाता है इसका समर्थन करते हुए स्वयं कहते हैं
अइसोहणजोएणं सुद्ध हेमं हवेइ जह तह य । कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि ॥२४॥
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